मुंबई जैसवार ( चमार ) समाज ने सिने जगत के सितारों और १० हज़ार से ज़्यादा स्वजातीय साथियों के साथ मनाई संत रविदास की जयंती।

जैसवार समाज का मुंबई में जबरजसत आगाज…

Posted by Rajesh Pasi on Sunday, March 26, 2017

मुंबई : २६ मार्च २०१७ को मुंबई में अखिल जैसवार विकास संघ ने संत रविदास की जयंती मनाई ।
जैसवार समाज यानी चमार समाज ने एक ऐसा सफल आयोजन मुंबई में किया जो अपने आप में अनोखा था ।

१० हज़ार लोगों को जी हाँ ६-७ हज़ार से ज़्यादा जैसवार के लोग थे ..और २ हज़ार से ज़्यादा अन्य समाज के लोग थे । जैसवार सामाज ने इतने लोगों को मुंबई में एकत्रित किया जो अपने आप में अनोखा था मानननिय कैलाश जैसवार और सुबचन राम जी का प्रयास बहुत सराहनीय है ।

इस कार्यकम में लँदन से मिस्टर. मालकियत बेथल ( बामसेफ़ ) , मैडम कल्पना सरोज जी , मिस्टर. तारम मेहाज जी ,देवेंद्र यादव के साथ सिने जगत के सितारे भी उपस्थित थे ।
जैकी श्रोफ , शशि कपूर , एहसान कुरेशि , तारक मेहता की दया मैडम , बिग बॉस की दीपा जी , जैसे लोग उपस्थिति थे ।

इसके अलावा भी कई बुद्ध और अंबेडकरी विचार धारा के लोग इकट्ठा थे ।

१० हज़ार से ज़्यादा लोगों का हुजूम पूरा बुद्ध मय और अम्बेडकरमय था ।

मुंबई जैसी जगह में उत्तर भारत से आकर १० हज़ार लोगों के साथ जय भीम का नारा लगाया । बुद्ध के विचारों पर चर्चा की । क्या यह आम बात है ।
न सिर्फ़ मिशन के लोगों ने बल्कि सिने जगत से जुड़े लोगों ने भी बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों पर चर्चा की ।सभी ने सिर्फ़ बुद्ध और बाबा साहेब के बारे में बात की ।
सचमुच अखिलेश जैसवार विकास संघ मुंबई में बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों को आगे बढ़ा रहे है ।
अगर मुंबई सभी समाज के लोग ऐसे ही लोगों को इकट्ठा करे तो आने वाले समय बाबा साहेब के कारवाँ को आगे बढ़ने से कोई नहि रोक सकता – अख़िलेश जैसवार , सात रास्ता, मुंबई

पासी और महार जाति एक समान है , जानिए कैसे ?

कई विद्ववानों के शोध में यह बात  सामने आई  है कि पासी राजवंश और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी का वंश  एक ही व्रक्ष कि दो शाखाएँ हैं। 

इस बात की पुष्टि के लिए दोनों में समानताओं पर द्रष्टिपात करिए

1- महार जाति की उत्पत्ति डा0 अंबेडकर के अनुसार नागकुल से हुई है अर्थात महार नाग कुल की एक शाखा है उसी तरह पासी की उत्पत्ति भी नाग कुल से हुई है 

2- नई खोजों के अनुसार पासी शब्द भारशिव नागवंशी टाक शाखा से निकल कर गुप्तकालीन दंड-पाशिक से पासी या भर-पासी बना फिर नवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में राजपासी के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था। महार भी टाकवंशी नाग हैं। (people of Indian)

3- उ0प्र0में पासी लोगों का मुख्य कार्य शासन से बाहर होने के बाद चौकीदारी या ताड़ी निकालना पाया जाता है। महार जाति का भी मुख्य पेशा चौकीदारी पाया जाता है। 

4- पासी जाती का मुख्य गढ़ मुख्यतः उ0प्र0 और बिहार हैं तो महार जाति ,का गढ़ महाराष्ट्र है 

5- महाराष्ट्र में महार धरतीपुत्र कहे जाते हैं उ0प्र0 में पासी शासकों की भूमिका निभा चुके हैं 

6- दोनों ही जातियाँ अपराधशील रह चुकी हैं। 

7- महारों ने 1925 कट यातना झेलीं तो पासियों ने अगस्त 1952 तक जरायम एक्ट की लंबी अवधि पार की। 

8- पासी और महरों का रक्त ग्रुप ए,बी,ओ है

9- वीरता के गुण पासी और महारों में समान रूप से पाया जाता है। पासी तो दंडपासी ही था 

10- इसी लिए कहा जाता है की पासी का लट्ठ पठान ही झेले श्री अमृतलाल ने ‘एकदा नैमिषारण्य’ उपन्यास में कहा है कि बनवासी समाज को वश  में करने के किए पहेले भर और पासी लठैत भर्ती किए। महार जाती का नाम भी काठी वाला अर्थात काठीवाला कहलाता है। काठ का अर्थ लकड़ी होता है। ‘Kathi wala means man with  a stick which is word inductive of his profession 

11- उ0प्र0 में पासी यदि राजवाशी कहलाते हैं तो महार लोग सोमवंशी हैं। यानी शिव भूषण चंद्र के वंशज। पासी तो भारशिव वंशज हैं ही। 

12. पासी जाति के लोग अलग अलग टाईटल से देश के 14 राज्यो में पाये जाते है। 

(स्रोत -इतिहासकार राम दयाल वर्मा की पुस्तक, विखरा राजवंश और  भारशिव राजवंशानाम से लिया गया है। ) 

क्या सचमुच फ़ौज के बारे में ख़ुलासा करने वाले जवान तेजबहादुर की हत्या हो गई है ?


सोशल मीडिया जितना उपयोगी है उसका उपयोग करने में भी सावधानी बरतनी चाहिए ।

इंटरनेट पर मौजूद हर अफ़वाह और उड़ती खबर को सच मानने से पहले, उसकी जांच करनी कितनी ज़रूरी है, ये आपको इस ख़बर से मालूम पड़ेगा.

हाल ही में इंटरनेट पर वायरल होती एक तस्वीर में BSF जवान तेजबहादुर यादव को मृत दिखाया गया है. वही तेजबहादुर, जो फ़ौज में घटिया खाने पर वीडियो बनाकर रातों-रात सुर्खियों में आ गए थे. मामला संवेदनशील था और बीएसएफ़ जवान से जुड़ा हुआ था, शायद इसलिए ही लोग इस तस्वीर को जमकर शेयर कर रहे थे.
लेकिन कई न्यूज़ चैनलों ने जाँच किया तो पता चला है की ख़बर फ़र्ज़ी है । टाइम्ज़ की एक वेब्सायट ने भी कन्फ़र्म किया है कि तेज़ बहादुर की यह ख़बर फेंक है ।

न्यूज़ एजेन्सीयो केअनुसार  बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स (बीएसएफ़) और यादव की पत्नी ने इन अफ़वाहों को सिरे से नकार दिया है. उन्होंने बताया कि तेजबहादुर ज़िंदा है और पूरी तरह से स्वस्थ हैं.

फ़ेसबुक और ट्विटर पर वायरल हो रही इस तस्वीर में जवान की आंखें बंद थी, नाक से खून बह रहा था और चेहरे का कुछ हिस्सा एक कपड़े से ढका हुआ था. इस जवान की तस्वीर यादव से काफी मिलती-जुलती है, पर जिसे यादव बताया जा रहा है वह दरअसल सीआरपीएफ़ का एक जवान है. कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में तैनात इस जवान की माओवादी हमले में मौत हो गई थी.
यादव की पत्नी शर्मिला यादव ने भी इन अफ़वाहों को झूठा करार दिया. उन्होंने कहा कि एक सीनियर जवान ने वायरल होती इन तस्वीरों को देख, मुझे संपर्क किया. मैंने अपने पति को फ़ोन लगाया और उनसे बात की है. वे बिल्कुल ठीक हैं और जम्मू के सांबा ज़िले में ड्यूटी पर तैनात हैं.

यादव की फ़र्जी तस्वीर के मामले में बीएसफ़ ने आधिकारिक तौर पर किसी तरह की जांच शुरू नहीं की है, पर एक अधिकारी का कहना है कि इनमें से कुछ पोस्ट्स को ऐसी आईडी से शेयर किया गया है, जिनके नाम तो भारतीय हैं, लेकिन इन पोस्ट्स की लोकेशन संदिग्ध है. ऐसे में इनकी जांच किए जाने की ज़रुरत है.

गौरतलब है कि यादव ने हाल ही में एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने बॉर्डर पर मिलने वाले घटिया स्तर के खाने की निंदा की थी. इस वीडियो में उन्होंने आर्मी अफ़सरों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए थे.

वीडियो के वायरल होने के बाद यादव की पत्नी ने दावा किया था कि उनके पति को धमकाया जा रहा है और प्रताड़ित किया जा रहा है. हालांकि बीएसफ़ ने इन दावों को सिरे से नकार दिया था और कहा था कि यादव जम्मू में तैनात हैं और अपने परिवार से किसी भी समय बात कर सकते हैं.

तो अगली बार  यह ज़रूर ध्यान रखे की किसी तस्वीर को शेयर करने से पहले उसकी जांच-परख ज़रूर कर लेना, कहीं फ़ेक तस्वीरें शेयर करने में आप भागीदार न बन जाएं.

सोर्स – विभिन्न न्यूज़ एजेन्सी 

पासी समाज शैक्षणिक और कैरियर गाइडेन्स शिविर, मुंबई यूनिवर्सिटी 

सामाजिक कार्य करने के लिए बहुत पैसों या बहुत बड़े संगठन की ज़रूरत नहि होती । ज़रूरत होती है सिर्फ़ इच्छा शक्ति की । यह कर दिखाया है मुंबई के एक ग्रुप RCP ( Reachout countrywide Pasi) ने । बेहद सीमित संसधनो के बावजूद पासी समाज में सोशल वर्क के नए तरीक़ों और कार्यशैली से पासी समाज का ध्यान आकर्षित किया है ।

Reachout countrywide Pasi [RCP]  ने बाबा साहेब की १२५ वी जयंती के उपलक्ष्य में पिछले साल मुंबई यूनिवर्सिटी में ३एप्रिल को एक दिवसीय शैक्षणिक और कैरीयर गाइडेन्स शिविर का आयोजन किया था । ईस   साल भी बाबा साहेब की जयंती उपलक्ष्य में ९ एप्रिल २०१७ को शैक्षणिक शिविर का आयोजन कर रहा है ..
इस आयोजन की खास बाते –

१ ) भारत में पासी समाज में ऐसा कार्यक्रम एक विश्वविद्यालय के प्रांगण में होगा जी हाँ RCP यह कार्यक्रम मुंबई यूनिवर्सिटी में होता है ।

2. गाइडेन्स देने वाले और लेने वाले दोनो ही पासी समाज से होंगे । 

3. यह प्रोग्राम शानदार एसी हॉल में होगा ताकि हमारे समाज के बच्चों पर इसका पॉज़िटव असर पड़े उन्हें भी पता चले की समाज की अब वह पहचान नहि है जो पहले थी 

4. Projector और कम्प्यूटर का उपयोग किया जाएगा 

5. १०० + विद्यार्थी के और उतने ही पेरेंट की एक साथ बैठने की सुविधा है

6. लंच ब्रेक में सभी विद्यार्थियों और पेरेंट के लिए नी:शुल्क मिनी लंच की वस्था है ।

7. पहली बार होगा जब हमारे समाज के बच्चे बिना ग्रैजूएशन में पहुँचे कम उम्र में यूनिवर्सिटी की सैर करेंगे नोलेज प्राप्त करेंगे। कई बार हमारे समाज के बच्चे ग्रैजूएशन तक पहुँचते ही नहि बहुत से बच्चे १२ वी तक पहुँचते पहुँचते ड्रॉप आउट हो जाते है । कम उम्र में यूनिवर्सिटी पहुँचने पर कम से कम एक लक्ष्य तो होगा की यूनिवर्सिटी तक पहुँच कर पढ़ाई करनी है ।

8. मार्गदर्शन करने वाले अपने ही समाज से है जो उन्ही परिस्थितियों से गुज़रे है जहाँ से अधिकतर अपने समाज के बचे गुज़र रहे है मार्गदर्शन देने वाले जानते है की हमारे बचो में भविष्य के लिए कैसे कॉन्फ़िडेन्स बढ़ना है 

9. समाज के ६ अलग अलग क्षेत्रों में सफलता पाए इस आयोजन के मार्गदर्शक अपना इक्स्पिरीयन्स बच्चों से साझा करेंगे।

10. और सबसे बड़ी बात यूनिवर्सिटी के इस आयोजन में पासी समाज के सभी बच्चों को और उनके पेरेंट को एंट्री बिलकुल फ़्री है ।
प्रमुख मार्गदर्शक (२०१६)

राजेश पासी CMA-Inter , B.Com

Corporate Manager 
भरत पासी B.Com

 Solution Architect – IT ( USA return )
राकेश कुमार -BE, ME (electronic and telecommunication), Lecturer at St Xavier’s Technical institute
बृजेश सरोज – IIT IAN
प्रभावती सरोज Mcom, CA and CS final

Sr. Officer- Accounts
संजय जी M.Sc. Physics .MLS

Ex. Member of Senate [ University of Mumbai ]
राकेश सरोज – B.A.(Hons.),MBA, भारत सरकार 
सुरेशचंद्र पासी – BE(computer),MBA(MSW)

AYM INDIAN RAILWAY
डा० ज्योति सरोज – MBBS

 
आप लोग प्रतसोहन करने के लिए  इस मैसेज को मुंबई से जुड़े लोगों और मुंबई के आस पास के लोगों में शेयर कर सकते है ताकि जयदा से ज़्यादा समाज के बचे लाभविनीत हो 
इन कार्य्क्र्मों के बारे में जानकारी या RCP के बारे में जानकारी के लिए लिए सम्पर्क करे – 

सुधीर सरोज – +91 9221993017

राम आसरे सरोज -+91 9870836502

राजेश पासी – 9594356043

पवन रावत -+91 9004415094

शोभा सरोज – 097681 75191 ( केवल महिलाओं के लिए )

शहीद दिवस के अवसर पर शहीद भगत सिंह की कृति “मै नास्तिक क्यो हु ” का विवरण उन्हे समर्पित 

”  शहीदों की मजारों लगेंगे हर वर्ष मेले 

    वतन पर मरने वालों का यही बाकि निशां होगा ।  

अमर शहीद भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर उन्हे भावपुर्ण श्रध्दांजलि !

आज के दिन ही भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।

कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा – “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;

मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।

ऐसे थे भगत सिंह व उनके साथी जिन्होंने मौत को भी खुशी से अपनाया, हंसते हुए गले लगाया| अब भगत सिंह के द्वारा लिखा लेख “मै नास्तिक क्यो हु” की चर्चा कर लेते है ।

भगतसिंह (1931)

मैं नास्तिक क्यों हूँ?


यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यहभगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।

स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।


एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?

मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।

मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘’जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।’’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘’दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।

इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।

मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?

आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।

सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।

यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?

तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।

और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।

मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।

हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘’अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।’’ मैंने कहा, ‘’नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।


Date Written: 1931
Author: Bhagat Singh
Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)   

        

               प्रस्तुति :-

                         अमित कुमार 

                          दिनारा रोहतास 

एंटी रोमियो स्क्वाड से ईतना आश्चर्य क्यों ? मैडम सुदीप्ति बावरी की वाल से !

(नोट : लेख में कुछ ऐसे शब्दों का उपयोग है जिन्हें शायद असभ्य या अश्लील माना जाय ,पर ऐसे शब्दों के बिना आज की यह सच्चाई समझ में नहीं आएगी , इसलिए नाबालिग़ और कट्टर धार्मिक लोग इस पोस्ट से दूर रहे )

एंटी  रोमियो स्क्वाड बनाते देख जाने लोग इतने आश्चर्य में क्यों भर गए हैं? रह-रह कर तर्क दे रहे हैं कि रोमियो एक महान आख्यान का नायक और प्रेमी किरदार है। उसे छेड़छाड़ वाला क्यों बना रहे हो? 
क्या आपको सच में लगता है कि बनाने वालों को नहीं पता है? उनको प्रेम, मुहब्बत, इश्क़ और छेड़छाड़, जबरदस्ती, बलात्कार का अंतर पता है और पर समझना चाहेंगे इसमें मुझे घोर संदेह है। 

दरअसल उनके लिए छेड़ और जबरन की जा रही चीजें स्वीकार्य हैं पर प्रेम नहीं। यह बात अज़ीब लग रही है आपको?
आप भला हमारे समाज को किन चश्मों से देखते हैं कि रह-रह कर आश्चर्य में भर उठते हैं?

यहाँ प्रेम निषिद्ध है। यहाँ प्रेम वर्जित है। यहाँ विवाह होते हैं प्रेम नहीं। 

प्रेम का मतलब उच्श्रृंखलता, नाक कटाना, इज्जत गवाना जैसा सब कुछ होता है। जिस आदमी को माँ-बाप, रिश्तेदार, समाज की अनुमति से तय कर लेते हैं वो अचानक से कुछ अटपटे मन्त्रों के बाद एक बिस्तर साझा करने के योग्य हो जाता है। पर यदि कोई लड़की/स्त्री किसी लड़के/पुरुष को परिचय, दोस्ती, प्रेम और लालसा वश ही चुनती है तो वो सबकी बेइज्जती हो जाती है। मुझे पहले कभी भी समझ नहीं आया कि स्वयं द्वारा चयनित सम्भोग इस समाज में इतना घृणित क्यों माना जाता है कि उसके लिए लोग क़त्ल तक कर जाते हैं। वहीं परिवार के लोगों द्वारा थोपा सम्भोग पवित्र माना जाता है।
फिर जब सोचना शुरू किया तो पाया कि क्योंकि प्रेम उदार बनाता है, प्रेम इनकी सीमाओं(धर्म, जाति, बिरादरी और भी बहुत) सीमाओं को तोड़ता है, प्रेम एक स्तर पर समानता भी लाता है। इसलिए समाज और पितृसत्ता के ठेकेदार तो उसके खिलाफ रहेंगे ही। प्रेम के कारण न सिर्फ स्त्रियों बल्कि युवा वर्ग पर भी प्रभुत्व ख़त्म हो जाएगा इसलिए इनके लिए वो अस्वीकार्य है।
आपने देखा है न दहेज़ का रोना रोते, बेटी को न चाहने की वजह दहेज़ की लोभी वृत्ति को बताने और लड़की को बोझ मानने वाले तथाकथित संस्कारी लोगों को। वे हर हाल में इन्हीं रूढ़ियों का वहन करना चाहते हैं जिनका रोना रोते हैं। बेटी/बेटा कोई इन सीमाओं से हट प्रेम कर ले तो दहेज़ इनके लिए मूल समस्या नहीं कटी हुई अदृश्य नाक है। 

इसलिए कंफ्यूज होने वाले मेरे फेसबुकिए दोस्तों मत सोचिए कि आपके त्रासद नायक ‘रोमियो’ को प्रेम से वंचित कर छेड़छाड़ का प्रतीक बनाया जा रहा है।
ये प्रेम के निषेध का एक संस्कारी और सरकारी उपाय है।
Note: क्राँतिकारी विचारों के जो दोस्त कृष्ण को छेड़छाड़ का प्रतीक बना रहे हैं उनसे मेरा निवेदन है मिथकों को इतने सरल रंगीन चश्मों से न देखें। कृष्ण कथाओं को पढ़िए। कृष्ण की वो सारी लीलाएँ चुहल थीं और चुहल और मोलेस्टेशन में फर्क होता है। चुहल जिससे की जाती है उसे भी गुदगुदी होती है। कृष्ण अक्सर इसलिए छेड़ते रहे कि जिनको छेड़ रहे हैं उनके मन को वह भा रहा था। वो ऐसा चाहती थीं। उनकी कामना थी कि कन्हैया उनको सताएँ।

मटकी तोड़ने, माखन खाने से लेकर प्रेम का निवेदन तक कृष्ण ने सामने वाले के रंजन के लिए किया है। किसी कृष्ण साहित्य में नहीं दिखाया गया है कि कृष्ण ने जबरन किसी को प्रेम/छेड़/चुहल की और उस गोपिका/स्त्री ने अपमान अनुभव किया। जरुरी नहीं है कि हम सभी पाठों को किसी विषाक्त विमर्श में तोड़-मरोड़ दें। 
ये कहते हुए मैं बताना चाहती हूँ कि कृष्ण के मिथकीय चरित्र के प्रति मेरा आकर्षण है पर उसके लिए कोई आग्रह नहीं। कमज़ोरी नहीं। पुराण और आख्यान पढ़ना पसंद है और उसी ज्ञान के आधार पर कह रही हूँ। कृष्ण को पूर्ण पुरुष कहा जाता है। क्यों? ये पता कीजिएगा। 
वैसे भी आप जिनका विरोध कर रहे हैं वो राम के आग्रही हैं, कृष्ण को वो स्वीकार ही नहीं कर पाएंगे। पत्नी को त्यागने वाले, स्त्री को अपने प्रेम नहीं मान-अपमान की वस्तु बना बदला ले उसकी अग्नि परीक्षा लेने वाले को आदर्श मानने वाले लोग क्या कृष्ण को समझेंगे?
और हाँ अगर मायथोलॉजी से एंटी स्क्वाड बनाना ही है तो

#एंटी_इंद्र_स्क्वाड बनाए जो स्त्री के शोषण में किसी भी भाषा के किसी आख्यान के महानतम खलपात्र को मात दे सकता है।

 #एंटी_विष्णु_स्क्वाड बनाएं। (उन्होंने दूसरे को हराने के लिए उसका वेश बना उसकी पत्नी से शारीरिक सम्बन्ध बनाया।)

#एंटी_ब्रह्मा_स्क्वाड बनाएं जिसने पुत्री की मर्ज़ी के खिलाफ उससे बलात्कार किया और बदले में हमारे प्रिय शिव ने एक सिर काट दिया।

पर जैसा कि लिख चुकी हूँ। इनको स्त्री के हित के लिए नहीं उसको काबू में करने के लिए बनाना है। तो प्रेम-विरोधी ही बनाएंगे न ?

भाजपा सरकार की छवि को दागदार कर देगा नवनीत सहगल

  

उत्‍तर प्रदेश का सबसे विवादित एवं भ्रष्‍ट आईएएस अफसर नवनीत सहगल, फिर नई सरकार में मुख्‍यमंत्री को अपने मोहपाश में लेने को बेचैन हो उठा है। कभी मायावती और बाद में अखिलेश यादव का खासमखास बना यह अधिकारी अब योगी आदित्‍यनाथ के आसपास भी मंडराने लगा है। संभव है कि दिल्‍ली के चर्च की जमीन को अपनी पत्‍नी तथा अखिलेश दास की पत्‍नी के नाम से फर्जी पॉवर ऑफ अटार्नी बनवाने वाला यह अधिकारी अब भाजपा की सरकार में अपने स्‍वजातीय खत्री नेता लालजी टंडन और उनके पुत्र कैबिनेट मंत्री आशुतोष उर्फ गोपालजी टंडन तथा इंडिया टीवी के पत्रकार हेमंत शर्मा का हाथ पकड़कर मुख्‍यमंत्री का प्रमुख सचिव या सरकार का मुख्‍य सचिव भी बन जाए। अगर ऐसा होता है तो सवाल योगी या उत्‍तर प्रदेश की सरकार से ज्‍यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर उठेगा। उन्‍हीं अमित शाह पर, जिन्‍होंने समाजवादी पार्टी की सरकार पर लखनऊ-आगरा एक्‍सप्रेस वे को लेकर सवाल उठाए थे। इसी नवनीत सहगल ने 18 करोड़ प्रति किमी के हिसाब से बनने वाले एक्‍सप्रेस वे को 31 करोड़ रुपए प्रतिकिमी से ज्‍यादा में बनवाकर अपनी काबिलियत को अंजाम दिया है। इसी सहगल के कारनामें के चलते पहले मायावती की सरकार और अब अखिलेश की सरकार भी चली गई। अगर भाजपा ने एनआरएचएम घोटाले में नाम आने वाले इस अधिकारी से दूरी नहीं बनाई तो उसे भी इसकी पूरी कीमत चुकानी पड़ेगी। एनआरएचएम घोटाले में इस भ्रष्‍टाचारी का नाम घोटाले का सूत्रधार गिरीश मलिक ने भी लिया था, लेकिन अपनी पहुंच और पहचान की बदौलत यह पाक-साफ हो गया। अगर इस मामले की ईमानदारी से जांच कराई जाए तो सहगल को प्रदीप शुक्‍ला और बाबू सिंह कुशवाहा की तरह जेल में होना चाहिए था, लेकिन शातिर सहगल अपनी सेटिंग की बदौलत बच निकला। जिस भरोसे के साथ प्रदेश की जनता ने भाजपा को बहुमत दिया है, अगर सहगल जैसे भ्रष्‍ट अधिकारियों को इस सरकार में भी महत्‍वपूर्ण विभाग दिए गए तो यह जनता के साथ विश्‍वासघात और नाइंसाफी होगी। खुद भाजपा के दिग्‍गज नेता आईपी सिंह ने पीएमओ पत्र लिखकर इस भ्रष्‍टाचारी अधिकारी के जांच की मांग की थी, इसके बाद भी भाजपा सहगल को प्रमुखता देती है तो फिर माना जाएगा कि पैसे और सेटिंग से सबकुछ बिक सकता है। यह अधिकारी जहां भी रहा, वहां इसने भ्रष्‍टाचार और पैसे उगाहने का ताना-बाना रचा। भाजपा के एजेंडे में शामिल काशी विश्‍वनाथ मंदिर तक को अपने गंदी सोच के जरिए भ्रष्‍टाचार का अड्डा बनाने का प्रयास किया। अगर काशी के पुरोहितों ने विरोध नहीं‍ किया होता तो बाबा भोलेनाथ के नाम पर फर्जी प्रसाद वितरण ऑनलाइन चल रहा होता। इसी भ्रष्‍ट अधिकारी ने मायावती के शासन काल में सरकारी चीनी मिलें औने-पौने दामों पर पोंटी चड्ढा को बिकवा कर अपनी भी जेबें भरी और मायावती को भी खूब कमवाया। जनता के पैसा इनकी जेब में गया। इसी सहगल ने ता‍ज कारिडोर मामले में अपने बचाव के लिए कांग्रेसी नेता संजीव अवस्‍थी का फिल्‍मी अंदाज में पुलिस से अपहरण करवाकर उसको फर्जी मामले में जेल भिजवाया था। आगरा का टोरेंट पावर घोटाला हो या फिर कानपुर का पाइप लाइन बिछाने का घोटाला, प्रत्‍येक घोटाले में इसी अधिकारी का नाम आया, लेकिन अपनी सेटिंग-पहुंच और पैसे के बल पर हर बार यह बचता गया। अगर भाजपा सरकार में भी इस भ्रष्‍ट नौकरशाह की ताजपोशी होती है तो यह लोकतंत्र का काला अध्‍याय होगा। यह भी साबित होगा कि चाहे सपा-बसपा हों या कांग्रेस या भाजपा, सारे दल अंदर से एक जैसे हैं। मक्‍खन मलाई चटाकर और सेटिंग करके यह प्रमुख पद पर पहुंच गया तो यह भाजपा की असफ़लता  

के पतन की शुरुआत होगी।

 —पत्रकार अनूप गुप्ता की रिपोर्ट

२० मार्च १९२७ महाड आंदोलन , क्रांति की भूमि की एक यात्रा और आज की स्थिति !

आज ही के दिन २० मार्च १९२७ को एक क्रांति हुई थी , एक ऐसी शांति पूर्ण क्रांति जिसने हज़ारों सालों की मान्यताओं को एक झटके से ध्वस्त कर दिया । आज के दिन ही बाबा साहेब ने महाड के तालाब में पानी पी कर मनुवादी द्वारा बनाए नियम क़ायदे ध्वस्त कर दिये और सबको एक ही तालाब में पीने की आज़ादी दी । यह सिर्फ़ पानी पीने की आज़ादी की क्रांति नहि थी बल्कि उस मनुवादी वस्था के ख़िलाफ़ यलगार था जहाँ तालाब में जानवर तो पानी पी सकता था पर ..एक इंसान पानी नहि पी सकता था । 


आज मैं राजेश पासी उस ऐतिहासिक स्थल को महसूस किया जहाँ उसी जगह बाबा साहेब ने मनुवादी वयस्था के ख़िलाफ़ क्रांति की शुरुआत की थी । आज मैं तालाब की उन्ही सीढ़ियों पर मौजूद था जहाँ से कभी बाबा साहेब ने क्रांति की चिंगारी जलाई थी जिसकी धमक पूरी दुनिया में दिखाई दी । आज इस ऐतहसिक स्थल पर मैं राजेश पासी अपने साथियों के साथ उस स्थान के दर्शन के किए । 


हमने उस ऐतिहासिक स्थल को और उस क्रांति को महसूस करने की कोशिश की जिसने इस देश के आने वाले इतिहास को बदल दिया । अब यह छोटा सा गाँव गाँव नहि रह गया है बल्कि शहर में तब्दील हो गया है । आज २० मार्च के दिन लाखों लोग आते है यहाँ बाबा साहेब को याद करने , पर मीडिया में कभी चर्चा नहि होती । प्रशासन से भी कोई ख़ास सहायता नहि मिलती वहाँ के लोकल रहवासी ही और कुछ प्राइवेट कम्पनियाँ रहने और खाने पीने की भी मुफ़्त वस्था करते है .रास्ते में पड़ने वाले गाँवो में जगह जगह लोगों के लिए मुफ़्त जलपान का स्टाल लगाए हुए थे । पूरे महाड में इसे आज भी एक उत्सव की तरह मानते है और क्रांति को याद करते है। देश और प्रशासन भले भूल गए हो पर  लाखों लोग आज भी २० मार्च के दिन यहाँ बाबा साहेब  को याद करने के लिए उनके अनुयायी मौजूद रहते है । – जय भीम , राजेश पासी ,मुंबई 

आज़ादी के बाद प्रदेश के मंत्रीमण्डल में पासी समाज को जगह क्यों नहीं ? पढ़िए पूरा लेख़

“राजनाथ टीम के पासी नेता मंत्रीमण्डल से आउट,  स्मृति ईरानी कोटे से सुरेश पासी को बनाया गया है राज्यमंत्री”

उत्तर प्रदेश के नवगठित मंत्री मण्डल में आज़ादी के बाद पहली बार किसी पासी नेता क्यों नहीं लिया गया ? इस प्रश्न का ज़बाब खोजने बैठा तो कुछ सूझ नहीं रहा, मन में सवाल उठ रहा था कि भाजपा जो ‘सबका साथ ,सबका विकास ‘के साथ सामाजिक और जातीय समरसता की दुहाई आजकल कुछ ज्यादा ही दे रही है तो ऐसे में प्रदेश की अनुसूचित जाति में 25 प्रतिशत हिस्सा रखने वाली जाति ‘पासी’ को असन्तुष्ट क्यों करेगी ? जबकि भाजपा के रणनीतिकार इस बात से बिल्कुल परिचित है पूरे अवध क्षेत्रों में भारी मात्रा में फैले पासी जाति की संख्या प्रदेश की 125 से ज्यादा विधानसभाओं में निर्णायक भूमिका में है।

चुनाव पूर्व इसी को ध्यान में रखकर भाजपा ने पासी जाति के जूझारू नेता सांसद कौशल किशोर को अनुसूचित मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया। इसके अलावा रामनरेश रावत को पार्टी का प्रदेश उपाध्यक्ष बनाकर पासी नेताओ  की गोलबंदी की । यह सभी गृहमंत्री राजनाथ के समर्थक के तौर पर पहचाने जाते है। 
बावजूद इसके प्रदेश भर में पासियों का एक हिस्सा बीएस4 के अध्यक्ष पूर्व मंत्री आरके चौधरी के साथ लगा रहा । जिसे साधने के लिए भाजपा  ने चौधरी की सीट मोहनलालगंज में गठबंधन कर बीएस4 के लिए छोड़ दिया । यह अब सपा बसपा से उपेक्षित हुआ पासी समाज आस्वस्थ हो गया कि भाजपा में  पासियो का सम्मान बढेगा, उसके नेताओं को सत्ता में भागीदार बनाया जाएगा । इस सोच के साथ प्रदेश का 80 प्रतिशत पासी समाज भाजपा को अपना मतदान किया , और भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई । लेकिन दुर्भाग्य से बीएस4 के अध्यक्ष आरके चौधरी चुनाव हार गए।
लेकिन भाजपा के टिकट पर 20 विधायक पासी समाज से चुनकर आये। समाज के चिंतक कयास लगा रहे थे कि नवगठित मंत्रीमंडल में पासी समाज से कम से कम 2 कैबिनेट और 2 राज्य मंत्री बनाये जा सकते है। यह संभावना और बढ़ गई जब राजनाथ सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाये जाने चर्चा हुई। 
परन्तु बीजेपी नेतृत्व ने बड़े नाटकीय ढंग से मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्य नाथ को बना दिया। और राजनाथ सिंह के प्रभाव को कम करने के लिए  योगी ने भारी मतों से जीते उनके बेटे पंकज सिंह को मंत्री मंडल मे जगह नहीं दी । जिसकी नाराजगी शपथ ग्रहण समारोह राजनाथ जी के चेहरें पर दिखी । अब आप समझ सकते है कि जब उनके बेटे को मन्त्री मण्डल में जगह नहीं तो उनके चाहने वाले पासी नेता कैसे ? 

इससे इतर अमेठी के जगदीशपुर विधानसभा के युवा विधायक सुरेश पासी को स्मृति ईरानी से की वफादारी का इनाम मिला क्योकि ब्लाक प्रमुख रहते हुए लोकसभा के चुनाव में सुरेश ने अपना ब्लाक उन्हें जिताया था। स्मृति ईरानी के संसदीय क्षेत्र अमेठी पासी बाहुल इलाका है जिसे साधने के लिए सुरेश पासी को राज्यमंत्री बनाया गया है। 

पासी समाज के साथ हुई इस उपेक्षा से  समाज का बुद्धजीवी तपका आक्रोशित है । लेकिन उम्मीद नहीं छोड़ा है उसे लग रहा है कि मंत्री मंडल के विस्तार में पासी समाज को कैबिनेट जगह मिलेंगी । अंत में उपेक्षित भाजपाई पासी नेताओ को शुभकामना सम्भावनाओ के खेल राजनीति में कुछ भी हो सकता है।

लेख़क -अजय प्रकाश सरोज ( सम्पादक -श्री पासी सत्ता) whatsap no. 9838703861