दरकिनार है कांशीराम के गुरु दीनाभाना का योगदान !

मान्यवर दीनाभाना जी

बामसेफ के संस्थापक एवं महा मानव मा० कांशीराम के राजनैतिक गुरु, वाल्मीकि समुदाय की आन-बान और शान मान्यवर दीनाभाना जी के जन्म दिवस पर कोटि-कोटि नमन. दलित बहुजन समाज की विडम्बना है कि कांशी राम जी के योगदान का गुणगान करने वाले इस महापुरुष का ज़िक्र करना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते है, उतरप्रदेश में सभी राजनीतिक पार्टियों ने वाल्मीकि समाज को भी अपना प्रत्याशी बनाया पर एक पार्टी को इस समाज की अच्छी जनसंख्या होते हुए भी कोई इस लायक नही मिला की इस समुदाय को भी टिकट देकर इनके प्रतिनिधित्व को भी शामिल किया जा सके । 
–कौशल पंवार (सहायक प्रोफेसर दिल्ली विश्व विद्यालय) की वाल से

सवर्णो को ५०% आरक्षण !


पिछले कुछ दीनो से आरक्षण को लेकर काफ़ी बहस हो रही है ….कुछ लोग आरक्षण को बैसाखी साबित करने पर तुले है ….तो कुछ को कहना है …की अपने बल और ताक़त पर मेहनत करनी चाहिए …आरक्षण के भरोसे अपने बच्चों को नहि बैठाना चाहिए …असल में परेशानी यह है की इन्हें आरक्षण का सही मतलब तो पता नहि …पर उसका विरोध करने में आगे रहते है ….दुख की बात है …की ऐसे लोग अपने आपको पासी समाज का अगुआ मानते है …पूरे देश में ऐसे लोगों की कमी नहि है …मुंबई में भी ……

ऐसे लोगों को बिलकुल ताज़ा उदाहरण देकर समझाने की कोशिश कर रहा हु ..
झारखंड पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में सवर्णों को 50% रिज़र्वेशन दे दिया गया है। जी हाँ आपने सही सुना है …बिना आरक्षण के भी उन्हें ५० % रेज़र्वेशन दे दिया है …..

होता यह है कि भले हमारे समाज के कितने भी अंक लाए ….पर यह लोग उन्हें सीमित सीटों पर ही सलेक्ट करते है ..

उदाहरण के लिए १० सीट है ….५ बहूजनो के लिए रिज़र्व है ….तो पहले ५ सीट सबसे ज़्यादा नम्बर वालों को सलेक्ट करना चाहिए चाहे Sc/ओबीसी हो या जेनरल ….उदाहरण के लिए १०० में से ९० नम्बर वालों का सलेक्त्श्न ….सभी लिए ।उसके बाद रिज़र्व में ९० से कम नम्बर वालों का सिलेक्शन सिर्फ़ sc/obc ke लिए ……

पर अब sc/obc के कट off मार्क जेनरल से ज़्यादा आ रहे है …तो भी उन्हें सीट नहि मिल रही है …

उदाहरण के लिए …अगर Sc वाले ८ लोग ९५ नम्बर से ज़्यादा पाए …है तो भी ….उन्हें ५ सीटों पर ही सलेक्ट करेंगे …बाक़ी ३ को सीट नहि मिलती भले उनके ९५ नम्बर है ….पर जो जनरल वाले है जिनका नम्बर ९० से कम है उन्हें अड्मिशन मिल जाता है …..

जो लोग कह रहे है …..की उन्हें या उनके बच्चों को आरक्षण नहि चाहिए ….उन्हें सवर्ण की तरह लगता है की आरक्षण वाले कम नम्बर लाते है ….या कमज़ोर
होते है ….

इन लोगों को यह पता नहि है की पिछले २-३ सालों से रिज़र्व की कैटेगरी ….जेनरल से ज़्यादा नम्बर पर कई इग्ज़ैम में क्लोज़ हुई है …

उदाहरण के लिए इसी झारखंड के इग्ज़ैम में कई लोगों को जेनरल से ज़्यादा नम्बर मिला है …पर जेनरल सिलेक्शन हो गया …पर sc/obc का नहि…यह लोग कुछ न कुछ तोड़ निकालते रहते है …..

जो लोग कहते है की आरक्षण के बजाय मेहनत किया जाय …वह लोग सोचे की कितना मेहनत करेंगे ……मेहनत करके …ज़्यादा नम्बर के बावजूद …..??

इसके अलावा इंटर्व्यू तो रहता ही है ……आगर आरक्षण न रहे तो ….एक भी सीट भरे ही नहि ….

कितनी ही आरक्षण की सीटें कोलेज और यूनिवर्सिटी में खली है …पर भरे नहि जाती क्योंकि ….यह लोग कहते है की कोई योग्य व्यक्ति इस पोस्ट के लिए मिला नहि ….

क्या पोस्सिबल है …..क्या इतनी बड़ी आबादी में इन्हें योग्य नहि मिलता …..देश भर में ऐसी सीटें खली है …..

कितनी मेहनत करेंगे आप …….

कुछ लोग इन सबके बावजूद सलेक्ट हो जाते है …उनका स्वागत है ….पर ऐसे कितने लोग समाज ….है …..पर आपको हज़ारों लोग मिलगे ..जो कई बार लिखित परीक्षा पास करने के बाद सिर्फ़ इंटर्व्यू में नहि सलेक्ट होते …….

जो लोग आरक्षण का विरोध कर रहे है …यह वह लोग है जो जाती वस्था को बहुत सम्मान करते है ….अंबेडकरवादी , बौधिष्ठ , यहाँ तक की मूलसलिम और क्रिस्चन को भी कभी आरक्षण का विरोध करते नहि दिखेंगे ….,पर हिंदुवादी ..जातिवादी , और जो लोग हिंदू रितिरिवाज को छोड़ नहि पाए है ….वही लोग विरोध करते है …चाहे सववर्ण हो या बहुजन ….

सोचिए आरक्षण होने पर यह हाल है ….

आरक्षण का विरोध करने से पहले आरक्षण के बारे में समझे । और अगर आप अपने आप को समाज का अगुआ मानते है तो ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है ।

-राजेश पासी , मुंबई 

चितौड़गढ का क़िला राणा के वंशजों ने नहि एक मोर्या राजा ने बनाया था

चित्तोंड़गढ़ का का क़िला
चितौड़गढ का जो किला भारतीय इतिहास में राणा के वंशजों की शान का प्रतीक है , उसका निर्माण एक मौर्य राजा चित्रांगद मौर्य ने 7 वीं सदी में कराया था । 
8 वीं सदी के मध्य में सिसौदिया वंश के संस्थापक बप्पा रावल ने राजस्थान में मौर्य वंश के अंतिम शासक मान मौर्य से यह किला अपने कब्जे में कर लिया था । 
मान कवि के राजविलास में चित्रांगद मौर्य द्वारा चितौड़ दुर्ग की स्थापना तथा उसके द्वारा 18 प्रांतों पर शासन करने का शानदार वर्णन है । चित्रांगद मौर्य की सेना में 3 लाख अश्व , 3 हजार हाथी, 1 हजार रथ और असंख्य पदाति थे । 
चित्रांगद मौर्य तथा उसके वंशजों का गौरवशाली वृत्तांत इतिहास – ग्रंथों से गायब हैं । बावजूद इसके चित्रांगद मौर्य एक शक्तिशाली और प्रभावशाली राजा था जिसने एक अजेय दुर्ग की स्थापना की जो अपने ढंग का अनुपम किला है ।

( संदर्भ :- राजपुताने का इतिहास , पहली जिल्द पृ. 95 , 305 ( पाद – टिप्पणी -1 ) तथा राजविलास , छंद 16 , 21 , पृ. 18 )
– भाषा वैज्ञानिक राजेंद्र प्रसाद की वाल से 

दबे मन से दिया बसपा को वोट

मन तो नही किया लेकिन हाथी को वोट कर दिया !

मेरी माँ ने कँहा कि मन तो नहीं कर रहा था कि मायावती को वोट दें लेकिन दे दिया। मित्र सोनू ने पूछा कि क्यों मम्मी ,बोली ” सोनू भइया चमारव् कबहु पासी के वोट नाही देत है लेकिन पासी ,चमारन के वोट दई देत थिन ” का करी अब केका देइत ? मायावती कुछ देता त नाही मगर थोड़ा बहुत शासन टाइट रखत है।

दर असल आज शहर से वोट देने के लिए मित्र सोनू के साथ गाँव गया जैसे ही घर पर पंहुचा तो माता श्री वोट देकर वापस लौटी थीं । यूँही मित्र सोनू ने पूछ लिया तो माता जी का जबाव सुनकर हम लोग चकित हो गए

# –अजय प्रकाश सरोज

​समावेशी विकास

भारत में समावेशी विकास की अवधारण कोई नई नहीं है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों का यदि अवलोकन करें, तो उनमें भी सभी लोगों को सात लेकर चलने का भाव निहित है। सर्वे भवन्तु सुखिन में भी सबको साथ लेकर चलने का ही भाव निहित है, लेकिन नब्बे के दशक से उदारीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से यह शब्द नए रूप में प्रचलन में आया, क्योंकि उदारीकरण के दौर में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को भी आपस में निकट से जुड़ने का मौका मिला और अब यह अवधारणा देश और प्रान्त से बाहर निकलकर वैश्विक सन्दर्भ में भी प्रासंगिक बन गई है। सरकार द्वारा घोषित कल्याणकारी योजनाओं में इस समावेशी विकास पर विशेष बल दिया गया और 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 का तो सारा जोर एक प्रकार से त्वरित, समावेशी और सतत् विकास के लक्ष्य हासिल करने पर है, ताकि 8 फीसद की विकास दर हासिल की जा सके।

क्या है समावेशी विकास?
समान अवसरों के साथ विकास करना ही समावेशी विकास है। दूसरे शब्दों में ऐसा विकास जो न केवल नए आर्थिक अवसरों को पैदा करे, बल्कि समाज के सभी वर्गो के लिए सृजित ऐसे अवसरों की समान पहुंच को सुनिश्चित भी करे हम उस विकास को समावेशी विकास कह सकते हैं। जब यह समाज के सभी सदस्यों की इसमें भागीदारी और योगदान को सुनिश्चित करता है। विकास की इस प्रक्रिया का आधार समानता है। जिसमें लोगों की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि समावेशी विकास में जनसंख्या के सभी वर्गो के लिए बुनियादी सुविधाओं यानी आवास, भोजन, पेयजल, शिक्षा, कौशल, विकास, स्वास्थ्य के साथ-साथ एक गरिमामय जीवन जीने के लिए आजीविका के साधनों की सुपुर्दगी भी करना है, परन्तु ऐसा करते समय पर्यावरण संरक्षण पर भी हमें पूरी तरह ध्यान देना होगा, क्योंकि पर्यावरण की कीमत पर किया गया विकास न तो टिकाऊ होता है और न समावेशी ही वस्तुपरक दृटि से समावेशी विकास उस स्थिति को इंगित करता है। जहां सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर में परिलक्षित हो तथा आय एवं धन के वितरण की असमानताओं में कमी आए।
समावेशी विकास की दशा और दिशा–

आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश की एक चौथाई से अधिक आबादी अभी भी गरीब है और उसे जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भारत में समावेशी विकास की अवधारणा सही मायने में जमीनी धरातल पर नहीं उतर पाई है। ऐसा भी नहीं है कि इन छह दशकों में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए केन्द्र तथा राज्य स्तर पर लोगों की गरीबी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम बने, परन्तु उचित अनुश्रवण के अभाव में इन कार्यक्रमों से आशानुरूप परिणाम नहीं मिले और कहीं तो ये कार्यक्रम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। यही नहीं, जो योजनाएं केन्द्र तथा राज्यों के संयुक्त वित्त पोषण से संचालित की जानी थीं, वे भी कई राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक न होने या फिर निहित राजनीतिक स्वार्थो की वजह से कार्यान्वित नहीं की जा सकीं।
समावेशी  विकास ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों के संतुलित विकास पर निर्भर करता है। इसे समावेशी विकास की पहली शर्त के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में हालांकि मनरेगा जैसी और भी कई रोजगारपरक योजनाएं प्रभावी हैं और कुछ हद तक लोगों को सहायता भी मिली है, परन्तु इसे आजीविका का स्थायी साधन नहीं कहा जा सकता, जबकि ग्रामीणों के लिए एक स्थायी तथा दीर्घकालिका रोजगार की जरूरत है। अब तक का अनुभव यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिवाय कृषि के अलावा रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधनों का सृजन ही नहीं हो सका, भले ही विगत तीन दशकों में रोजगार सृजन की कई योजनाएं क्यों न चलाई गई हों। सके अलावा गांवों में ढ़ांचागत विकास भी उपेक्षित रहा फलतःगांवों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन होता रहा और शहरों की ओर लोग उन्मुख होते रहे। इससे शहरों में मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती गई तथा अधिकांश शहर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को वहन कर पाने में असमर्थ ही हैं। यह कैसी विडम्बना है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहीं जाने वाली कृषि अर्थव्यवस्था निरन्तर कमजोर होती गई और वीरान होते गए, तो दूसरी ओर शहरों में बेतरतीब शहरीकरण को बल मिला और शहरों में आधारभूत सुविधाएं चरमराई यही नहीं रोजी-रोटी के अभाव में शहरों में अपराधों की बढ़ ई है।
वास्तविकता यह है कि भारत का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां कृषि क्षेत्र से इतर वैकल्पिक रोजगार के साधन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, परन्तु मूल प्रश्न उन अवसरों के दोहन का है सरकार को कृषि में भिनव प्रयोगों के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी सहित नकदी फसलों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। यहां पंचायतीराज संस्थाओं के साथ जिला स्तर पर कार्यरत् कृषि अनुसंधान संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है जो किसानों से सम्पर्क कर कृषि उपज बढ़ाने की दिशा में पहल करे तथा उनके समक्ष आने वाली दिक्कतों का समाधान भी खोजे तभी कृषि विकास का इंजन बन सकती है। कृषि के बाद सम्बद्ध राज्य में मौजूद घरेलू तथा कुटीर उद्योगों के साथ पर्यटन पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। सरकार को आर्थिक सुधारों के साथ-साथ कल्याणकारी योजनाओं जैसे मनरेगा, सब्सिडी का नकद अन्तरण आदि पर भी समान रूप से ध्यान देना होगा।
भारत की विकास दर, जो वर्ष 2012-13 में पांच फीसद है, वह पिछले दस वर्षो में सबसे कम है वर्ष 2013-14 की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है भारतीय रिजर्व बैंक ने विकास दर की सम्भावना को घटाकर 5.5 कर दिया है। वर्ष 2002-03 में विकास दर चार फीसद थी, लेकिन उस समय भयंकर सूखे की वजह से ऐसा हुआ था, लेकिन इस बार ऐसी कोई बात नहीं है। समावेशी विकास हेतु श्रम बहुल विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देना ही होगा। यदि विकास दर में 8-9 फीसद प्रतिवर्ष चाहते हैं, तो विनिर्माण क्षेत्र को 14-15 फीसद प्रतिवर्ष की दर से सतत् आधार पर विकास करना होगा। जापान,कोरिया तथा चीन में विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति देखें, तो यह संघ के संघटक रूप में भारत की तुलना में काफी अच्छी है।
चीन में जहां यह 42 फीसद, दक्षिण कोरिया में 30 फीसद तो भारत में मात्र 16 फीसद है। कुच समय पहले घोषित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति एनएमपी का उद्देश्य भारत में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को 2021-22 तक 16 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसद करना और अतिरिक्त 100 मिलियन रोजगार अवसर प्रदान करना है इस हेतु भारत के प्राचीनतम श्रम कानून में जो विश्व में सबसे ज्यादा सख्त है, संशोधन करना होगा, ताकि वे कामगारों की सुरक्षा के उनकी रोजी-रोटी को भी बचा सके पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिण क्षेत्रों के समर्पित माल ढुलाई गलियारा डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर्स का त्वरित कार्यान्वयन करना होगा। स्मरम रहे कि इसमें दक्षता विकास के जरिए जॉब प्रशिक्षण की व्यवस्था है। 

जब चमार ने पासी नौजवानों से कहा मायावती तुम्हारी मजबूरी

पासी नौजवानों के बीच बैठा एक चमार ने ताना मारते हुए कँहा जब तक मायावती जिन्दा है हम और हमारा समाज उन्ही के साथ रहेगा।आप को जंहा मन हो वंहा जाइये ।

सब स्तब्ध हो उठे ! राजू पासी बोले कैसी बात कर रहे हो क्या बसपा को केवल चमारो ने बनाया था ? बोला नही ।
फिर ऐसी बात क्यों कर रहे है ? क्योकि हम जानते है पासी कंही जा ही नहीं सकता ।

उसको कंही और सम्मान नहीं मिलेगा ? हम लोगो ने पासियों को इतना बदनाम कर दिया है की पासी की मजबूरी है मायावती को वोट करे।

बगल में बैठे नीरज पासी ने कंहा जैसे तुम दुत्कार रहे हो ऐसी ही बहन जी भी पासी नेताओ को दुत्कारती है । लेकिन पासी नेता अपने स्वार्थ के लिये मायावती का दुत्कार सहन करता बसपा के लिए खून पसीना बहाता रहता है। और पासी समाज वोट भी देता है।

मतलब यह की हम तुम्हें न सम्मान देंगे और न इस लायक छोड़ेंगे कि तुम कंही सम्मान पा सको ।
#है न ब्रह्मवादी नीति

भारशिव /पासी सम्राट गणपति नाग की विद्वता से इतिहासकार भी कायल हुए थें

दिनांक २२ फेबरवरी २०१७ को अमर उजाला में छपी ख़बर
आज अमर उजाला दैनिक अखबार में कौशाम्बी राजा गणपति नाग के विषय में छपी एक खबर पढ़ा तो छानबीन शुरू किया कुछ तथ्य सामने आये है आप सबसे साझा कर रहा हुँ—-अजय प्रकाश सरोज 

भारशिव शासक गणपति नाग के विषय में काशी प्रसाद जायसवाल की पुस्तक “अन्धकार युगीन भारत ” में विस्तृत वर्णन है । लेकिन महान शोधकर्ता ब्रह्मिलिपि के विषेशज्ञ भारशिव राजाओं के अध्ययन कर्ता श्री अमृत लाल नागर की पुस्तक “एकदा नैमिषारण्य” के पृष्ठ संख्या 314 पर अंकित तथ्य भारशिव सम्राट गणपतिनाग के प्रंशसा में लिखा है।

 जो इस प्रकार है —

” तक्षक वंशीय महाराज गणपति नाग के सम्बन्ध में पहले भी किसी से प्रसंशा भरी बातें सुन चुका हूँ उन्होंने ब्रह्मिलिपि का परिष्कार करके उन्हें शिरो  रेखा युक्त करके सुन्दर रूप दे रखा है ।हाँ नागों में उनसे श्रेष्ठ और सुलझा हुआ विद्धवान और निष्ठावान पुरुष मैंने नहीं देंखा । उनकी चलती तो भारशिवों का साम्राज्य प्रबल रूप से सुंगठित हो जाता ।'”

इतिहासकार रामदयाल वर्मा ने अपने पुस्तक ‘भारशिव-राजवंशानाम्’ में यह स्पष्टऔर सर्वविदित कर चुके है कि आज की पासी जाती की उत्पत्ति भारशिव वंश से हुई है। इसकी वीरता और पराक्रम का लोहा कई विदेशी आक्रमणकर्ता तथा उनके साथ आये लेखकों ने किया है। राजा गणपति नाग भारशिव राजवंश के अंतिम शाशक माने जाते है। 

ईस्वी 345 में समुद्रगुप्त ने गुप्त वंशीय सम्राट बनकर अपना विजय अभियान चलाया तो उत्तर – भारत में भारशिव सम्राटों ने उसका मुहतोड़ जबाब दिया लेकिन अन्त में कई भारशिव राजाओ को उसने पराजित किया । इनमे से नौ भारशिव राजाओ का वर्णन इलाहाबाद के स्तम्भ में ब्रह्मिलिपि में लिखा है। जो अकबर किले में आज भी देखा जा सकता है। उन पराजित राजाओ में गणपतिनाग का नाम भी शामिल है। अपने विजय अभियान के दौरान  समुद्रगुप्त ने राजनीतिक और कूटनीतिक चाल से भारशिव राजाओ को पराजित किया । समुद्रगुप्त ने खुद को मजबूत बनाये रखने के लिए अपना सामाजिक सम्बन्ध भी गणपति नाग से स्थापित किया था। 

‘प्राचीन भारतीय संस्कृति ‘ नामक पुस्तक में लेखक बीएल लुनिया के अनुसार – “चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने पद्मावती के गणपति नाग और नागसेन नामक नाग राजाओ को पराजित करके उनसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिया। इस मैत्रीक सम्बन्ध को वैवाहिक संबंध से मजबूत किया गया। चंद्रगुप्त द्वितीय जो समुद्रगुप्त का छोटा पुत्र था ,का विवाह नागवंशीय कन्या कुबेर नाग से हुआ। जो महादेवी नाम से विख्यात थीं।इन दोनों से प्रभावती गुप्त नामक राजकन्या पुत्री हुई।”

बाद में समुद्रगुप्त से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने से भारशिवों के वंशज, गुप्तवंश के राजाओं के शासन काल में आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाने लगे । इन्हें” दंड पाशाधिकारी” कहा जाता था। राज्य में सुरक्षा और शान्ति ब्यवस्था की जिम्मेदारी इन्ही भारशिवों के वंशजो को सौंपा जाता था। इनके पास दंड देने के लिए लाठी और रस्सी हुआ करती थीं। धीरे धीरे यह’ दंड पाशिक”  वर्ग बन गया ।

 550 ईस्वी में गुप्त नरेशो की समाप्ति के बाद  सांतवी शताब्दी में हर्षवर्धन के समय जाति का प्रारंभ हो जाता है । जो जिस काम को करता था उसकी वंही जातीय पहचान बनती चली गई। और यही “दण्ड पाशिक” बनते बिगड़ते पासी हो गए ।  

अब पासियों को अपने गौरवशाली इतिहास की जानकारी करनी चाहिए। अपनी जाति का सौंदर्य बोध करके आज के परिवेश में नया रास्त्ता निर्माण कर पुनः अपने गौरव को बहाल कराने की जिम्मेदारी लेनी  चाहिए।

( लेखक शोध छात्र है और श्रीपासी सत्ता पत्रिका का संपादन भी करते है)

ब्राह्मण मजदूर कैसे जान गया कि किचेन में चिकेन बन रहा है ?

रविवार का दिन पापा के लिये नॉनवेज का दिन होता है । उन्हें बहुत पसंद है इधर कुछ दिनों से हमारे यहाँ माकान मरम्मत का काम चल रहा तो कुछ नॉनवेज बन नहीं रहा था । आज छुट्टी के दिन पापा का मन नहीं माना तो नॉनवेज ले आये।
अब पासी के घर में मीट बने तो है तो खुशबू तो आएगी। देशी मशालों की खुशबू किचेन के बाहर भी गई तो काम करने वाले मजदूर बोल वैठे क़ि आज कुछ विशेष बन रहा है । 

 पूछने पर मैंने कहा अंदाजा लगाओ बोला जरूर चिकेन बन रहा है। हमने भी बड़े सरल स्वाभाव से बोल दिया चिकेन नहीं बकरे का मीट है। तो उनके चेहरर पर कुछ अलग ही भाव दिखे मेने पूछ लिया क्यों आपलोग नहीं खाते । वो बोले हम ब्राम्हण है । तो चिकेन की महक कैसे जान गए ? कुछ शरमा के रह गया..

पापा बताया कि 50 वर्ष पहले यंही लोग कितनी क्रूर हुवा करते थे । यह लोकतंत्र का कमाल है जिसकी वजह से एक ब्राह्मण मजदूरी के लिए हमारे किसी भी जाति के घर काम कर लेते है। वरना एक समय था जब इनकी जाति के लोग शुद्र के घर पानी तक पीना पसंद नहीं करते थे। अत्यचार ऊपर से करते थे। मुझे लगा कि सच में मेरे कालेज की ब्राह्मण लड़कियां अपने जाति पे कितना घमण्ड करती थीं। समय का बदलाव है कि रोजी रोटी के लिए एक ब्राह्मण एक पासी अनुसूचित के यहाँ काम कर रहा । रोजी रोटी के लिए कोई जात पात नहीं देखते तो इतना ढोंग क्यों करते है। पैसे में कोई छूत नहीं लगती लेकिन वही इंसान अगर उनके घर के किसी बर्तन में पानी पी ले तो उसे क्या से क्या नहीं सहन करना पड़ता है। तो क्या आर्थिक सम्पनता ही जातीय बन्दन को तोड़ रही है ? 

लोक तंत्र का उत्सव है वोट देने जरूर जाइये। सामाजिक परिवर्तन होकर रहेगा। –रागिनी पासी, इलाहाबाद

दलित नहीं भारत में अनुसूचित जातियाँ है ।

_अनुसूचित_” जाति का अर्थ

(_जाति_) का मतलब तो हमको पता है, परन्तु ये (_अनुसूचित_ ) का क्या मतलब है?

पढ़िए…

सन् 1931 में पहली बार उस समय के _ जनगणना आयुक्त (“_मी. जे. एच. हटन_”) ने संपूर्ण भारत के _अस्पृश्य जातियों _ की _जनगणना_ की और बताया कि _‘भारत में 1108 अस्पृश्य जातियां_ है, और वे सभी जातियां (_हिन्दू धर्म के बाहर_) हैं।’

इसलिए, इन जातियों को (_बहिष्कृत जाति_) कहा गया है। उस समय के “_प्रधानमंत्री (_ रैम्से मैक्डोनाल्ड_”) ने देखा कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह ( _बहिष्कृत जातियां _ एक स्वतंत्र वर्ग _ ) है।

और इन सभी जातियों का _हिन्दू धर्म_ में समाविष्ट (_नही_ ) है,

इसलिए उनकी (_”एक “सूची”_) तैयार की गयी। उस (_”सूची”_) में समाविष्ट जातियों’ को ही (_‘अनुसूचित जाति’ _ ) कहा जाता है।

इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा _‘अनुसूचित जाति अध्यादेश_ 1935’_ के अनुसार _(कुछ सुविधाएं_ ) दी गई हैं।

उसी आधार पर भारत सरकार ने _‘अनुसूचित जाति अध्यादेश 1936’_ जारी कर (_आरक्षण सुविधा प्रदान_) की।

आगे _1936 के उसी अनुसूचित जाति अध्यादेश_ में _थोड़ी हेरफेर_ कर _‘अनुसूचित जाति अध्यादेश 1950’ _ पारित कर _(आरक्षण का प्रावधान_) किया गया।

💐💐💐 निष्कर्ष 💐💐💐

अनुसूचित जाति का नामकरण का उदय का इतिहास यही कहता है कि भारत वर्ष में 1931 की जनगणना के पहले की (अस्पशर्य~ बहिष्कृत~ हिन्दू से बाहर) जातियाँ थी। इन्ही बहिष्कृत जातियों की “सूची”तैयार की गई।

और उसी (अश्पृषय ~ बहिष्कृत~ हिन्दू से बहार ) जातियोँ की (“_सूचि_”) के ‘आधार’ पर डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर जी ने _ ब्राह्मणों के खिलाफ जाकर _ अंग्रेजो से लड़कर हमें “मानवीय अधिकार” दिलाने में “सफल” हुए।

“अनुसूचित जाती” का (_मतलब_) ही यहि है…

तो हमें भी ये जान लेना चाहिए की अनुसूचित का मतलब उस दौर में (अश्पृषय ~ बहिष्कृत~ हिन्दू से बाहर), मतलब (_जो हिन्दू नहीं थी_ वे जातीया ) है। (_हिन्दू से स्वंतंत्र_ _वर्ण व्यवस्था से बाहर_पाँचवाँ अघोषित वर्ण ~ अतिशूद्र)

(अनुसूचित जाती ) हमारी_ संवेधानिक पहचान_ है।

और जो कुछ आज हम फायदा ले रहे हे वह _सिर्फ और सिर्फ_ मिलता हे _अनुसूचित जाति_ के नाम पर _ ना कि _दलित _वंणकर _चमार _या वाल्मीकि _के नाम पर ।

और एक (हम लोग SC) हैं, “अनुसूचित जाति” नाम का उद्भव के _इतिहास की जानकारी _ होने के बावजूद भी हमारे लोग _हिन्दू हिन्दू_ को पकडे _ हुए हैं।

अगर आप अभी भी _हिन्दू_ को पकडे हुवे तो ये _नेतिक रूप_ से _बाबासाहेब के सविधान_ का _अपमान_ कर रहे हे ।

हमेशा याद रहे की (अनुसूचित) का मतलंब _सिर्फ और सिर्फ_ यही है कि जो लोग _हिन्दू धर्म _ में _नहीं है_वे लोग_अनुसूचित है।

रवीश कुमार की क़लम से …


ध्रुव सक्सेना, मनीष गांधी, मोहित अग्रवाल, बलराम पटेल, ब्रजेश पटेल, राजीव पटेल, कुश पंडित, जितेंद्र ठाकुर,रितेश खुल्लर,जितेंद्र सिंह यादव,त्रिलोक सिंह। ये सारे नाम है उन लोगों को जिन्हें मध्य प्रदेश के एंटी टेरर स्कॉड ने पाकिस्तानी की ख़ुफ़िया एजेंसी के लिए काम करने के आरोप में पकड़ा है। गनीमत है कि इनमें से कोई जे एन यू का नहीं है और न ही मुसलमान है वर्ना आज मीडिया में तूफान मच रहा होता और इसके बहाने यूपी के बड़े वाले वोट बैंक को एकजुट होने के लिए ललकारा जाता।अगर इन नामों की जगह मुस्लिम नाम होते तो मीडिया में हंगामा मच रहा होता। ट्रोल सारा काम छोड़ कर बवाल मचा चुके होते। तूफान मचाने की राजनीति का एक ही मकसद है कि किसी तरह हिन्दू मुस्लिम गोलबंदी करो और वो गोलबंदी एक पार्टी के हक में करो। जहां कहीं दंगा हो, वहां से ऐसा कोई किस्सा चुन लो और फिर सोशल मीडिया से लेकर मीडिया में हंगामा करो, सवाल पूछो कि फलां कहां हैं,वो चुप क्यों हैं। अपनी सरकारों से नहीं पूछेंगे, दो चार पत्रकार से पूछकर ये बराबरी और इंसाफ मांगते हैं। एकाध ट्वीट अपने मंत्री को ही कर देते कि आप क्यों नहीं बोल रहे हैं। जांच क्यों नहीं हो रही है। आए दिन यही होता रहता है।

@DailyIndiaIN: बीजेपी नेता ISI एजेंट निकला पर ना तो कोई देश बचाने सड़क पर उतरा ना ह् मीडिया ट्रायल चला ।

पढ़िए रविश कुमार को:

बीजेपी नेता ISI एजेंट निकला पर ना तो कोई देश बचाने सड़क पर उतरा ना ही मिडिया ट्रायल चला !