वीरांगना ऊदा देवी पासी की क्रांतिकारी जीवनगाथा

भारत में यूरोपियों का आगमन व्यापारियों के रूप में हुआ किंतु दो शताब्दियों के भीतर यूरोपियों में से अंग्रेज सशक्त होकर उभरे और विभिन्न रूढ़ियों में बंधा तथा जाति-पाति में बिखरा भारतीय समाज इन अंग्रेजों का सामना नहीं कर पाया और दासता की एक लम्बी दास्तां का प्रारम्भ हुआ…. इतिहास वीरांगना उदा देवी पासी के अप्रतिम वीरता का परिचय देते हुए ऐसे प्रतिमान स्थापित किए, जो इतिहास में विरले ही दिखाई पड़ते हैं.

ऊदा देवी का जन्म लखनऊ के समीप स्थित उजिरावां गांव में पासी परिवार में हुआ था. भारतीय समाज में विभिन्न जातियों के अन्तर्गत पासी जाति भी निम्न व अछूत ही समझी जाती थी. पासी जाति की सामान्य समाज से अलग क्षेत्र में बस्ती होती थी. इन बस्तियों में उच्च जाति के लोग प्रायः नहीं जाया करते थे. पासी समाज सीमित स्तर पर हस्तकलाओं द्वारा अपना जीवन यापन करता था अथवा उच्च समृद्ध लोगों के खेत में कृषक मजदूर के रूप में भी कार्य किया करता था. जब जीवनयापन के स्रोत सीमित हों और आस्तित्व की रक्षा प्रमुख चुनौती होती है तो वीरता और आत्मस्वाभिमान स्वतः ही आ जाता है. पासी जाति भी इसका अपवाद नहीं थी. यह जाति वीर और लड़ाकू जाति के रूप में भी जानी जाती थी. इसी वातावरण में उदा देवी का पालन-पोषण हुआ. जिसे इतिहास की रचना करनी होती है, उसमें कार्यकलाप औरों से न चाहते हुए भी अलग हो ही जाते हैं. उदा बचपन से ही निर्भीक स्वभाव की थी. बिना किसी झिझक के घने जंगलों में अपनी टोली के साथ खेलने चली जाती थी. खेल भी क्या थे, पेड़ पर चढ़ना, छुपना और घर लौटते समय जंगल से फल और लकड़ियां एकत्रित करके लाना.

जैसे-जैसे उदा बड़ी होती गई, वैसे-वैसे वह अपने हमउम्रों का नेतृत्व करने लगी. सही बात कहने में तो उदा पलभर की भी देर नहीं करती थी. अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी. खेल-खेल में ही तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना उदा के लिए सामान्य बात थी.

किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते उदा में गम्भीरता का समावेश होने लगा. पढ़ना-लिखना उस समय असामान्य सी बात थी अतः उदा भी इससे दूर रही किंतु परिस्थितियों ने उसे शीघ्र निर्णय लेने वाली, साहसी, दृढ़ निश्चयी और कठोर हृदय वाला बना दिया था. आगे चलकर यही गुण उदा को इतिहास में उच्च स्थान दिलाने वाले थे.

सन् 1764 ई. भारतीय इतिहास में निर्णायक वर्ष था. इसी वर्ष बक्सर में अंग्रेजों, बंगाल में नवाब मीर कासिम, अवध में नवाब शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम की संयुक्त सेना को परास्त कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी. इस युद्द के बाद अवध भी अंग्रेजों की परोक्ष सत्ता के अधीन आ गया और अंग्रेजों ने अवध को नचोड़ना शुरू कर दिया जिससे उसकी स्थिति दिन-ब-दिन जर्जर होती गई. सन् 1856 में अवध का अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया गया और नवाब वाजिद अली शाह को नवाब के पद से हटा कर कलकत्ता भेज दिया गया. सन् 1857 ई. में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर ने अवध की सत्ता पर अपना दावा ठोंक दिया.

अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी. इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी था. मक्का पासी का विवाह उदा से हुआ था. जब बेगम हजरत महल ने अपनी महिला टुकड़ी का विस्तार किया तब उदा की जिद और उत्साह देखकर मक्का पासी ने उदा को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी. शीघ्र ही उदा अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी.

10 मई 1857 मेरठ के सिपाहियों द्वारा छेड़ा गया संघर्ष शीघ्र ही उत्तर भारत में फैलने लगा एक महीने के भीतर ही लखनऊ ने भी अंग्रजों को चुनौती दे दी. मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानुपर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे. बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अवध की सेना भी अंग्रेजों पर भारी पड़ी. किंतु एकता के अभाव व संसाधनों की कमी के कारण लम्बे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं हुआ और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुनः नियंत्रण पाने के प्रयास शुरू कर दिए. दस जून 1857 ई. को हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया. चिनहट के युद्ध में मक्का पासी को वीरगति की प्राप्ति हुई. यह उदा देवी पर वज्रपात था किंतु उदा देवी ने धैर्य नहीं खोया. वह अपनी टुकड़ी के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाती रही.

नवंबर आते-आते यह तय हो गया था कि अब ब्रिटिश पुनः लखनऊ पर कब्जा कर ही लेंगे. भारतीय सैनिक अपनी सुरक्षा के लिए लखनऊ के सिकंदराबाग में छुप गए. किंतु इस समय लखनऊ पर कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में हमला हुआ. उदा देवी बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं हुई. अंग्रेजी सेना ने सिकंदराबाग को चारो ओर से घेर लिया. उदा देवी सैनिक का भेष धारण कर बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर समीप के एक पेड़ पर चढ़ गई और अंग्रेजों पर गोलियां बरसाने लगी. उदा की वीरता देख शेष सैनिक भी अंग्रेजों पर टूट पड़े. काफी समय तक अंग्रेजों को पता ही नहीं चला कि उन पर कहां से गोलियां चल रही हैं. अंत में कैम्पबेल की दृष्टि उस पेड़ पर गई जहां काले वस्त्रों में एक मानव आकृति फायरिंग कर रही थी. कैम्पबेल ने उस आकृति को निशाना बनाया. अगले पल ही वह आकृति मृत होकर जमीन पर गिर पड़ी. वह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाब रंग की कसी हुई पैंट पहने था नीचे गिरते ही एक ही झटके में जैकेट खुल चुकी थी समीप जाने पर कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि यह शरीर वीरगति प्राप्त एक महिला का था.वह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलों से लैस थी एक में गोलियां भरी थी दूसरी खाली थी उसकी आधी जेब में गोलियां भरी थीं,अन्य गोलियों से अब तक यह वीरांगना 36 अंग्रेजों को मौत के घाट उतार चुकी थी। बारलेस को जब मालूम हुआ कि वह पुरुष नहीं महिला है यह जानकर वह जोर से रोने लगा। यह घटना 16 नवंबर सन् 1857 ई. की है संग्राम में क्रांती के दीवानों ने रेजिडेंशी को लखनऊ को घेर लिया था अंग्रेजों को बचने का कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा था यह देख कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनरल कैम्पबेल था। जिसे कानपुर से लखनऊ जाते समय रास्ते में तीन बार अमेठी और बंथरा के पासी वीरों से हारकर वापस लौट जाना पड़ा था। अब सोचना है कि एक ओर अंग्रेजी फौज के साथ बंदूक थी दूसरी ओर लाठियां, कितने पासी जवान तीन बार में मारे गये होंगे। जब कैम्पबेल चौथी बार आगे बढ़ने सफल रहा तो उसने सबसे पहले महाराजा बिजली पासी के किले ही अपनी छावनी बनाई थी।

जब तक उदा देवी जीवित रहीं तब तक अंग्रेज सिकंदराबाग पर कब्जा नहीं कर सके थे. उदा देवी के वीरगति प्राप्त करते ही सिकंदराबाग अंग्रेजों के अधीन आ गया. अंग्रेजी विवरणों में उदा देवी को ‘ब्लैक टाइग्रैस’ कहा गया. दुःख व क्षोभ की बात यह है कि भारतीय इतिहास लेखन में उदा देवी के बलिदान को वो महत्व नहीं दिया गया जिसकी वो अधिकारिणी हैं।
वीरांगना ऊदा देवी पासी के क्रांतिकारी त्याग संघर्ष व बलिदान को शत शत नमन।

राकेश कुमार (प्रदेश प्रवक्ता)
अखिल भारतीय आम्बेडकर महासभा
9415443546(उ. प्र)

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