प्रकाशित हो रही है बृजमोहन की लिखित ”क्रांतिकारी मदारी पासी : एक ऐतिहासिक उपन्यास “

देश में स्वतन्त्रता संग्राम के बाद का सन्नाटा था। 1857 में हुए भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को गोरों ने गदर कहा था। गदर के दमन में हजारों स्वतन्त्रता सेनानी मृत्यु के घाट उतारे जा चुके थे या कैदी बना कर प्रताड़ित करने को जेलों में भेज दिए गए थे। जो बचे पाये थे, वे बेचैनी में गुमनामी जीवन व्यतीत कर रहे थे। अँग्रेजों ने जमीनें चापलूस जमींदारों के अधीन कर दी थीं। लगान वसूली के लिए जमींदारों को अपना एजेण्ट बना दिया था। किसानों और गरीबों पर जमींदारों के कारिन्दे कहर बरपा रहे थे। महाजनां, साहूकारों के शिकंजे ग्रामीणों पर बुरी तरह कसे थे। कभी लगान वसूली के नाम पर, कभी कर्जे और सूद के नाम पर उपज, खेत और पशुधन छीन लिए जाते थे। छोटे-मोटे जेवर, जो उनके पास होते थे, उन्हें भी छीन लेते थे। धौंसपट्टी से बेगार करा लेना, कमजोरों को प्रताड़ित करना आम बात थी। समर्थों के अत्याचारों से कमजोर वर्ग के लोग भयभीत रहते थे। ऐसी क्रूरता के चलते किसानों, गरीबों की स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं थीं। मौके-बेमौके उनकी इज्जत पर हमले का खतरा बना रहता था।
उन्हीं दिनों हरदोई जिले के एक गाँव में मदारी का जन्म हुआ। पिता का नाम मोहन पासी था और गाँव का नाम मोहनगंज मजरा इटौंजा, तहसील सण्डीला। कोई नहीं जानता था कि यही बालक, भविष्य में एक जुझारू जननायक बनकर उभरेगा और गरीबों, उपेक्षितों के मसीहा के रूप में मदारी पासी के नाम से जाना जाएगा। कालान्तर में उसकी मूर्तियाँ स्थापित होंगी, कलैण्डर छपेंगे… और, एक क्रान्तिवीर के रूप में उसका इतिहास पुनः लिखा जाएगा, क्योंकि उपेक्षावश इतिहास के पन्नों में उसे वह स्थान नहीं मिल सका था, जिसका वह हकदार था।
मोहन पासी गरीब किसान थे। उनके पास पर्याप्त भूमि नहीं थी। उन्हें प्रायः मजदूरी या नौकरी पर निर्भर होना पड़ता था। वह ऐसे कुटुम्ब से थे, जिन कुटुम्बों में जन्मकुण्डली नहीं बनवाई जाती थी। अतः मदारी की भी कुण्डली नहीं बनी। जब मदारी मशहूर हुए तो उनके जन्म का वर्ष अनुमानतः सन् 1860 ई0 आँका गया।

मदारी को बचपन से ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रचलित प्रथा के अनुसार उनका विवाह कम उम्र में हो गया और दो बेटे, दो बेटियों के पिता बन गए थे। पारिवारिक व सामाजिक दायित्वों के चलते कोई विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। कोई डिग्री या शैक्षणिक प्रमाणपत्र उनके पास नहीं थे। मदारी कोई कुशल वक्ता नहीं थे, परन्तु उनके अन्तःकरण से निकली सीधी, सच्ची और क्रान्तिकारी बातें लागों को बहुत प्रभावित करती थीं। उन्होंने हिन्दी के साथ-साथ उर्दू का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह दूसरों को उर्दू पढ़ाया करते थे। उस समय हिन्दी की अपेक्षा उर्दू का चलन अधिक था।
होश सँभालते ही उनके सामने विसंगतियाँ रहीं। ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित होने से देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। किसानों का दुतरफा दोहन हो रहा था। एक ओर भूमि सम्बन्धी अँग्रेजों के अहितकारी कानून थे तो दूसरी तरफ जमींदारों के अपने मतलब के गढ़े कायदे। अत्याचार और दमन करना अपना अधिकार समझते थे। दोहरी मार से किसान हैरान-परेशान थे। वह ऐसा समय था, जब समाज में छुआछूत, ऊँच-नीच, जाति-पाँति का भेदभाव, जमींदारों तथा साहूकारों की मनमानी का बोलबाला था। ऐसी कुरीतियों को देखते हुए उनके भीतर विद्रोह की भावना अंकिरत होने लगी और कालान्तर में प्रतिरोध की ज्वाला बन गई। उन्हें लगने लगा कि इन कुरीतियों से लड़ने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। उनके व्यक्तित्व में अक्खड़पन आ गया और अन्यायी से लड़ने के लिए आत्मविश्वास उनमें कूट-कूटकर भर गया। अन्याय तो वह सह ही नहीं सकते थे, चाहे किसी के भी साथ हो। अन्यायी के खिलाफ हमेशा खड़े होने को तत्पर रहते थे। अगर लड़ाई भी लड़ना पड़े तो उसके लिए भी तैयार रहते थे। ग्रामीणों को जागृत करने और उनमें साहस भरने का काम उन्होंने आरम्भ कर दिया था।
अपने अभियान में मदारी यथासम्भव पैदल ही गाँव-गाँव घूमकर किसानों से मिलते थे। उनके दुख-सुख की बातें सुनते थे। सबको एक होकर रहने की बात समझाते थे। किसान उन्हें अपना सच्चा हितैषी मानकर उनसे जुड़ने लगे थे। उनसे जुड़ने वालों में छोटे किसान व भूमिहीन थे, जो जमींदारी प्रथा से त्रस्त थे और विभिन्न जाति-धर्म के थे। इस प्रकार हजारों लोग उनसे गहन रूप से जुड़ गए थे। बाद में उन्होंने एक घोड़ी पाल ली थी। घोड़ी पर दूर-दूर तक जाते थे। युवा अवस्था में जब वह एक प्रभावशाली किसान नेता के रूप उभर रहे थे, तब तक उनके समर्थक और सहयोगी खासे बढ़ चुके थे। जिनमें युवकों की संख्या अधिक थी। उन्हें ‘राजा’ कहा जाने लगा था।
देश में किसान सभाएँ गठित हुईं तो मदारी पासी किसान सभा से जुड़े और अपने क्षेत्र में उसका नेतृत्व किया। आरम्भ में महात्मा गाँधी से प्रभावित रहे और प्रतीकात्मक गाँधी टोपी धारण करने लगे। असहयोग आन्दोलन में जमकर भागीदारी करने लगे। अचानक गाँधीजी से मोहभंग हो गया और गाँधीजी की नीतियों से मुँह मोड़ लिया, लेकिन गाँधी टोपी पहनना नहीं छोड़ी। गाँधी टोपी उनकी वेशभूषा का आवश्यक हिस्सा बन गई थी।

अपना आन्दोलन सुचारु रूप से चलाने को मदारी को सुनिश्चित स्थान की आवश्यकता महसूस हुई तो उन्होंने अपने गाँव मोहनगंज को मुख्यालय बनाया और गाँव का नाम बदलकर मोहनखेड़ा रखा। कोई भी दुखिया मोहनखेड़ा जाकर अपना दुख कह सकता था। मोहनखेड़ा एक ऐसा ठिकाना बन गया था, जहाँ गुहार लगाने से न्याय की आशा की जा सकती थी। अटूट विश्वास लोगों के भीतर भरने लगा था।
वह जानते थे की अत्याचारों के खिलाफ बिना ताकत के नहीं लड़ा जा सकता। इसके लिए उन्होंने मोहनखेड़ा में ही एक अखाड़े की परिकल्पना की, जहाँ शरीर सौष्ठव और कुश्ती के दाँवपेंच का अभ्यास किया जा सके। इसके लिए उन्होंने नवयुवकों को आगे आने का आह्वान किया और अखाड़ा शुरू कर दिया। वह स्वयं मजबूत शरीर के थे और लाठी बहुत अच्छी चलाते थे। तलवार भाँजने में भी माहिर थे। वैसे धनुष-वाण उनका प्रिय अस्त्र था। धनुष और वाण हमेशा साथ रखते थे। उनका निशाना अचूक था। उनके तरकश का एक तीर ही किसी भी प्रतिरोध को खण्डित करने के लिए काफी था। अस्त्र-शस्त्र के प्रशिक्षण व अभ्यास की योजना भी उनके दिमाग में थी। सिर्फ लाठी-डण्डे से काम नहीं चल सकता था। हर एक के पास तो ढंग की लाठी तक नहीं थी। भाला, बल्लम, तलवार, तीर-कमान लोगों को सिखाना चाहते थे। लेकिन इन सबके लिए धन आवश्यक था।
अच्छा-खासा संगठन उन्होंने खड़ा कर लिया था। विरोधियों को सबक सिखाने का उनका अपना ढंग था। विषमताओं से निपटने को कमर कसे थे और सतर्क रहते थे। उन्होंने अपना विश्वसानीय खुफिया तन्त्र भी खड़ा किया, जिससे उपयोगी सूचनायें उन तक पहुँच सकें। सताया हुआ व्यक्ति भयभीत होकर भले ही अपनी पीड़ा व्यक्त न कर सके, परन्तु उन्हें मालूम पड़ जाता था। जिसकी मदद करना उनकी प्राथमिकता होती थी। वह ग्रामीणों में निर्भय वातावरण तैयार करना चाहते थे।
मदारी के विश्वसनीय साथी थे- जसकरन, गजोधर, नगई, शिवरतन, बचान, भैरव आदि व स्थानीय कार्यकर्ता। पवाँया के रघुनाथ शुक्ला भी उनसे जुड़ गए थे। मदारी के एक इशारे पर सभी जान की बाजी लगा सकते थे। वह अपने कार्यकर्ताओं को सहयोगी कहते थे। उनके सहयोग से ही उनका अभियान सक्रिय रहा, लोग जागृत हुए। जो बाद में आन्दोलन का रूप लेने लगा और एका आन्दोलन के नाम से जाना गया।

शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘क्रान्तिवीर मदारी पासी’ का अंश। लेखक: प्रसिद्ध कथाकार व उपन्यासकार बृज मोहन , झाँसी उत्तर प्रदेश

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