इण्डिया गेट का इतिहास और अमर जवान ज्योति 

(दिल्ली इण्डिया गेट पर श्रीपासी सत्ता की टीम में क्रमशः संजीव ,प्रमोद,संपादक अजय,और चन्द्रसेन विमल जी)

अमर जवान ज्योति ( अमर योद्धाओं की लौ ) प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा उन भारत के सैनिकों के लिए जिन्होंने पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध में अपनी जान गंवाई, का सम्मान करने के लिए बनाया गया 
अमर जवान ज्योति काले संगमरमर से बना है और एक बंदूक और चोटी पर एक सैनिक की टोपी है. अमर जवान ज्योति इंडिया गेट के बगल में स्थित है. ये उन सैनिकों को याद करने के लिए बना था जिनकी भारत-पाक युद्ध में मृत्यु हो गई थी. तब से यह अभी तक जल रहा है.
1971 से अमर जवान ज्योति लगातार जल रही है.1971 से पाकिस्तान से युद्ध के बाद अमर जवान ज्योति जली.काफी समय से LPG से अमर जवान ज्योति जलती रही, अब PNG से जलती है.कस्तूरबा गांधी मार्ग से इंडिया गेट तक 500 मीटर लंबी गैस पाइप लाइन बिछी है.26 जनवरी और 15 अगस्त को अमर जवान ज्योति पर सभी चारों ज्योति जलती है.आम दिनों में सिर्फ एक ज्योति जलती है.26 जनवरी पर देश के पीएम परेड से पहले अमर जवान ज्योति पर पहुंच शहीदों को श्रद्धांजलि देते हैं.

यमुना नदी के किनारे स्थित दिल्‍ली शहर भारत की राजधानी है जो प्राचीन और गतिशील इतिहास के साथ एक चमकदार आधुनिक शहर है। इस शहर में बहुपक्षीय संस्‍कृति है जो पूरे राष्‍ट्र का एक लघु ब्रह्मान्‍ड कहा जा सकता है। इस शहर में एक साथ दो अनोखे अनुभव होते हैं, नई दिल्‍ली अपनी चौड़ी सड़कों और ऊंची इमारतों के साथ एक समकालीन शहर होने का अनुभव कराता है जबकि पुरानी दिल्‍ली की सड़कों पर चलते हुए आप एक पुराने युग का नजारा ले सकते हैं, जहां तंग गलियां और पुरानी हवेलियां देखाई देती हैं। दिल्‍ली में हजारों पुराने ऐतिहासिक स्‍मारक और धार्मिक महत्‍व के स्‍थान हैं।

शहर के महत्‍वपूर्ण स्‍मारक, इंडिया गेट 80,000 से अधिक भारतीय सैनिकों की याद में निर्मित किया गया था जिन्‍होंने प्रथम विश्‍वयुद्ध में वीरगति पाई थी। यह स्‍मारक 42 मीटर ऊंची आर्च से सज्जित है और इसे प्रसिद्ध वास्‍तुकार एडविन ल्‍यूटियन्‍स ने डिजाइन किया था। इंडिया गेट को पहले अखिल भारतीय युद्ध स्‍मृति के नाम से जाना जाता था। इंडिया गेट की डिजाइन इसके फ्रांसीसी प्रतिरूप स्‍मारक आर्क – डी – ट्रायोम्‍फ के समान है।
यह इमारत लाल पत्‍थर से बनी हैं जो एक विशाल ढांचे के मंच पर खड़ी है। इसके आर्च के ऊपर दोनों ओर इंडिया लिखा है। इसके दीवारों पर 70,000 से अधिक भारतीय सैनिकों के नाम शिल्पित किए गए हैं, जिनकी याद में इसे बनाया गया है। इसके शीर्ष पर उथला गोलाकार बाउलनुमा आकार है जिसे विशेष अवसरों पर जलते हुए तेल से भरने के लिए बनाया गया था।
इंडिया गेट के बेस पर एक अन्‍य स्‍मारक, अमर जवान ज्‍योति है, जिसे स्‍वतंत्रता के बाद जोड़ा गया था। यहां निरंतर एक ज्‍वाला जलती है जो उन अंजान सैनिकों की याद में है जिन्‍होंने इस राष्‍ट्र की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया।
इसके आस पास हरे भरे मैदान, बच्‍चों का उद्यान और प्रसिद्ध बोट क्‍लब इसे एक उपयुक्‍त पिकनिक स्‍थल बनाते हैं। इंडिया गेट के फव्‍वारे के पास बहती शाम की ठण्डी हवा ढेर सारे दर्शकों को यहां आकर्षित करती हैं। शाम के समय इंडिया गेट के चारों ओर लगी रोशनियों से इसे प्रकाशमान किया जाता है जिससे एक भव्‍य दृश्‍य बनता है। स्‍मारक के पास खड़े होकर राष्‍ट्रपति भवन का नज़ारा लिया जा सकता है। सुंदरतापूर्वक रोशनी से भरे हुए इस स्‍मारक के पीछे काला होता आकाश इसे एक यादगार पृष्‍ठभूमि प्रदान करता है। दिन के प्रकाश में भी इंडिया गेट और राष्‍ट्रपति भवन के बीच एक मनोहारी दृश्‍य दिखाई देता है। 

हर वर्ष 26 जनवरी को इंडिया गेट गणतंत्र दिवस की परेड का गवाह बनता है जहां आधुनिकतम रक्षा प्रौद्योगिकी के उन्‍नयन का प्रदर्शन किया जाता है। यहां आयोजित की जाने वाली परेड भारत देश की रंगीन और विविध सांस्‍कृतिक विरासत की झलक भी दिखाती है, जिसमें देश भर से आए हुए कलाकार इस अवसर पर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं।

प्रस्तुति- संजीव कुमार (प्रतियोगी छात्र ) नई दिल्ली

सामाजिक न्याय के अधिकांश नेता पैसा बनाने में लग गए –सांसद शरद यादव 

भारतीय  राजनीती को सामाजिक न्याय से सींचने और उसे पालने तक के संघर्ष  में ,जो काम शरद यादव जी द्वारा किया गया है  वह मील का पत्थर है।  आज उनके आवास 7 तुगलक रोड  नई दिल्ली पर मुलाक़ात करके बहुजन राजनीती की सौदागरी करने और सामाजिक न्याय की राजनीति को पीछे करने वाले नेताओं पर चर्चा शुरू किया तो वे बेबाकी से बोले ऐसे लोग केवल पैसा बनाने में लगे है। और अपने परिवार ,जाति तक सीमित हो गए है। इन्हें सिर्फ पैसा बनाने से मतलब रह गया है । राज्यसभा में अपने दोनों बगल बैठने वाले नेता मायावती और रामगोपाल पर प्रश्न पूछने पर उन्होंने कहा कि दोनों को हार का कोई गम नहीं दोनों मस्त रहते है। 
ईवीएम घोटाले पर चर्चा करते हुए  उन्होंने कहा बहुजन राजनीति से भटक कर ब्राह्मणों के वोट की लालच में सब बर्बाद कर दिए और अब ईवीएम को दोष  देकर बचना चाहते है। अब इनके भरोसे बहुजन राजनीति गर्त में ही जायेगी। सामाजिक न्याय की राजनीती करने वाले लोग अपनी अपनी जातियों तक सीमिति होते जा रहे है। युवाओं को बड़ा दिल रखना होगा। सामाजिक न्याय की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष करना होगा। 

दिल्ली से #बहुजन बचाओ अभियान’ के लिए अजय प्रकाश सरोज

उत्तर प्रदेश पासी समाज नेतृत्व विहीन क्यों ? – अजय प्रकाश सरोज

 

धर्मवीर भारती साहेब से लेकर आर के चौधरी तक

हाल में हुए विधान सभा चुनाव में समाजवादी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे अवधेश प्रसाद,बसपा सरकार में मंत्री इंद्रजीत सरोज और इन दोनों पार्टियों की सरकार में मंत्री रहे आरके चौधरी चुनाव हार गए है। कांग्रेस ने तो पासी समाज से नेता बनाना ही छोड़ दिया है। लेकिन पासी समाज का राजनैतिक इतिहास इससे जुडा है । इसलिए चर्चा करना जरूरी भी है।

उत्तर प्रदेश की राजनीती में पासी समाज का रुतबा 1952 से 1988 तक अपनी उफान पर था । कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रहते धर्मवीर जी के नेतृत्व में 26 पासी विधायक बनकर असेम्बली पहुचें थे। इस आशा के साथ की केंद्रीय नेतृत्व धर्मवीर जी को मुख्यमंत्री बनायेगा। लेकिन कुछ तत्कालीन ब्राह्मणवादी शक्तियो  के विरोध स्वरूप धर्मवीर जी मुख्यमंत्री की शपथ नहीं ले पाएं। इसी दौरान कांशीराम का आंदोलन चल रहा था । दलितों में चमार समाज के कांगेसी  नेता बाबू जगजीवन राम का प्रभाव शिथिल पड़ चुका था। जिसके  कारण अघिकतर चमार / जाटव समाज के लोग सामिल हो रहे थे। धर्मवीर जी को मुख्यमंत्री   न बनाने पर खुद को छला और ठका हुआ महसूस करने वाला पासी समाज कांशीराम के बहुजन आंदोलन की ओर देखने लगा। तब तक खण्ड विकास अधिकारी रहें राम समुझ पासी ,कांशीराम जी के करीब हो चुके थे  कांशीराम के कहने पर रामसमुझ जी नौकरी से इस्तीफा देकर उनके आंदोलन में शामिल हो गए। उनके साथ पासी समाज वह तबका जो कांग्रेसः की उपेक्षा से गुस्से में था वे सब कांशीराम को अपना नेता मानकर राम समुझ जी के साथ हो लिए। इस तरह कांग्रेस की उपेक्षा का लाभ कांशीराम के आंदोलन को मिल गया। रामसमुझ जी ने पासी बाहुल इलाके में जमकर दौरा करके पासी समाज को बसपा के साथ जोड़ दिया। उसी दौरान फैजाबाद में वक़ालत करने वाले एक पासी युवक से राम समुझ जी की मुलाक़ात हुई । वह युवक आरके चौधरी थे।  बसपा में पढ़े लिखे नौजवानों की आवश्यकता थी। तो रामसमुझ जी ने चौधरी को मान्यवर कांशी राम से मिलाया  और  फिर यही से शुरु होता है। पासी नेता मैनजमेंट।  पार्टी का काम तेजी से आगे बढ़ रहा था। बहुजन नेताओ में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता  शुरू हो गई। कांशीराम जी कहने पर राम समुझ ने  इंदिरा गांधी के बेहद करीबी रहें प्रतापगढ़ के राजा दिनेश सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ गए। जिसमे उन्होने बहुत संघर्ष किया। उस चुनाव में उनकी अम्बेसडर कार तोड़ दिया गया था। लेकिन उन्होंने समंतवादियो के खिलाफ चुनाव लड़ने का  बिगुल फूक दिया । बाद में मायावती की इंट्री होते ही आपसी कम्पीटीशन का दौर शुरू हो गया। अन्ततः रामसमुझ जी को पार्टी से निकाल दिया गया। तब रामसमुझ समर्थको सहित पासी समाज फिर एक बार खुद को छला हुवा महसूस किया। लेकिन पासी समाज का दर्द बाँटने के लिए कांशीराम ने आरके चौधरी  को आगे किया। और फिर  आरके चौधरी पासी समाज के सर्वमान्य नेता हो गए। रामसमुझ जी अलग होकर संघर्ष करने लगे । अपने जीते जी अवामी समता पार्टी सहित कई संघठन चलाये । लेकिन उनकी राजनीति परवान नहीं चढ़ सकी।

पिछले दरवाज़े से सेंधमारी – मृणाल पाण्डे


ज्ञानी कह गए हैं कि लोकतंत्र का मतलब है सतत चौकसी। इस चौकसी में लगता है कुछ कमी रह गई है। राज्य चुनावों से फारिग होकर जब मीडिया और विपक्ष उत्तर प्रदेश में पकड़-धकड़ योगी आदित्यनाथ की दिनचर्या और सपा, बसपा और कांग्रेस नेतृत्व के तयशुदा विघटन पर अनवरत चर्चा में व्यस्त थे उस बीच केंद्र सरकार ने वित्त मंत्री के भाषण पर चर्चा के बाद कई विवादास्पद प्रावधानों वाले एक धन विधेयक को लोकसभा में बहुमत का पूरा लाभ उठाकर तुरत-फुरत पारित करा लिया। इस तरह बिना राज्यसभा को भेजे और व्यापक बहस के बगैर ही देश के जन-जन का जीवन प्रभावित करने वाले कई विवादास्पद प्रस्ताव बाध्यकारी कानून बना दिए गए। चतुर सुजान वित्तमंत्री ने कानूनी दलील दी थी कि धारा 388 के तहत इन विषयों का वित्तीय आयाम भी है। इसलिए प्रस्तावित संशोधन धन विधेयक के अंतर्गत लोकसभा में ही पारित हो सकते हैं। उसे राज्यसभा के विचारार्थ भेजना जरूरी नहीं है जहां विपक्ष का बहुमत है। इस जटिल विधेयक के मसौदे में पेश 150 नए प्रावधानों में जिस तरह बिना किसी पूर्वसूचना के अचानक 33 नए, किंतु महत्वपूर्ण प्रावधानों को जोड़ा गया वह तृणमूल कांग्रेस सांसद सौगत राय के अनुसार लोकसभा ही नहीं, बल्कि संसदीय इतिहास में भी अभूतपूर्व है। सांसदों को जटिल एवं तकनीकी, किंतु व्यापक बुनियादी बदलावों वाले इस प्रस्ताव को गौर से पढ़ने-समझने का वक्त ही नहीं मिला और किसी सार्थक बहस या स्पष्टीकरण के बिना ही विधेयक पारित हो गया। संख्याबल कमजोर होने से विपक्ष का प्रतिरोध भी नक्कारखाने की तूती ही साबित हुआ।
बीजू जनता दल के सांसद तथागत सत्पथी के सहायक मेघनाद ने ट्वीट के जरिये बताया कि शायद एक सोची समझी रणनीति के तहत केंद्रीय बजट पर पहले सभी को बोलने का अवसर दिया गया और इससे पहले कि सांसद कुछ समझ पाते, इस धन विधेयक का मसौदा पटल पर रख दिया गया जिसमें अंतर्विरोधों की भरमार थी। मसलन आधार कार्ड को बच्चे, बूढ़े और जवान सभी के लिए अनिवार्य बनाना। भाजपा जब विपक्ष में थी तब 2010 में उसके वरिष्ठ सांसद यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाली संसदीय समिति ने संप्रग की इसी ‘आधार कार्ड योजना’ के प्रस्ताव को खारिज करते हुए इसे एक अस्पष्ट दिशाहीन और जबरदस्ती भरा कदम करार दिया था। उन्होंने यह भी कहा था कि इससे नागरिकों की निजता के अधिकार का भी हनन होगा। खुद मोदी जी ने भी अप्रैल 2014 में इसे एक तिकड़म करार दिया था। अब उसी आधार को क्यों कर इतना बाध्यकारी बनाया जा रहा है कि इसके बिना जनता न तो आयकर भर सकेगी न ही प्राइमरी कक्षा के बच्चे मिड डे मील हासिल कर सकेंगे? यहां तक कि उच्चतम न्यायालय ने भी यह कह दिया है कि जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार की अनिवार्यता जरूरी नहीं है। लोकतंत्र में ताली दोनों हाथों से ही बजती है। लिहाजा जनता या विपक्ष के लिए राजनीतिक फतवे या जुमले ठोस प्रामाणिकता पर आधारित जानकारी के विकल्प नहीं बन सकते। सरकारी गोपनीयता के नीचे दबाई गई जानकारियां पाने को ही सूचना का अधिकार कानून लंबी जद्दोजहद के बाद हासिल किया गया। दूसरी ओर यह भी एक विडंबना ही है कि जो सरकार नागरिकों के निजी जीवन में ‘आधार कार्ड सूचनाओं के मार्फत हर तरह की गहरी ताकझांक का हक चाहती है वह खुद एक जायज सूचनाधिकार कानून के तहत जनता को नोटबंदी जैसे अपने बड़े फैसले के पीछे तथ्यों की बाबत कोई भी वांछित जानकारी देने से बिदक रही है।
संविधान के अंतर्गत बने मौजूदा निगरानी प्रकोष्ठों के पुनर्गठन का प्रस्ताव भी चिंताजनक है। धारा 32 के अनुसार कानूनन ये प्रकोष्ठ आयकर विभाग की किसी निरंकुशता के खिलाफ जनता की सुनवाई करते हैं और उनमें बदलाव तभी लाए जा सकते हैं जब देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष कोई बड़ा खतरा मंडरा रहा हो। कम से कम फिलहाल तो ऐसे कोई सूरतेहाल नहीं दिखते। तब अचानक उनके पुनर्गठन और नए प्रकोष्ठ में पहले की तरह विधायिका की सलाह लिए बिना विशुद्ध सरकारी फैसले से नई नियुक्तियां करवाने की क्षमता की पेशकश समझ से परे है। चिंता तब और गहराती है जब जानकार बताते हैं कि सरकारी आयकर विभाग के अधिकारियों द्वारा छापेमारी और घर में बिना पूर्व सूचना के पड़ताल संबंधी अधिकारों का दायरा बहुत अधिक बढ़ा दिया गया है। कहीं वही कहावत तो चरितार्थ नहीं होगी कि ‘जबरा मारेगा भी और रोने भी नहीं देगा।’
अब प्रस्तावित संशोधनों से नागरिक निजता में संभावित सेंध की बात। संविधान के अनुसार निजता यानी खुद अपने और अपनों के जीवन, खान-पान, आजीविका या जीवन मूल्यों ही नहीं, बल्कि राजनीतिक राय के बारे में भी अहम फैसले करने, उन पर खुद सोचने-विचारने, दूसरे लोगों से अंतरंगता साझा करने का हक अभिव्यक्ति की आजादी की ही तरह लोकतांत्रिकता की बुनियाद है।

चंद साल पहले मोदी जी ने ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का नारा देकर हमें आश्वस्त भी किया था कि उनकी सरकार का जनजीवन में हस्तक्षेप कम से कम और अधिकतम ध्यान बेहतर प्रशासन पर रहेगा। तब सरकार में नागरिक निजता में कभी आधार कार्ड के ब्योरे जमा कर तो कभी बैंक खाते पैन से जोड़कर और कभी पार्क या सड़कों से जब जी किया किसी युवक-युवती को एंटी रोमियो दस्तों से उठवा कर या मीट की दुकान पर बीफ-बीफ चिल्लाकर छापा मारने का ऐसा अभद्र उतावलापन क्यों देखने को मिल रहा है? शंका का दूसरा बड़ा क्षेत्र निजी उपक्रमों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने से जुड़ा है। नोटबंदी के दौरान हुई तकलीफ की कचोट कम करने को बीते दिनों नागरिकों को बार-बार बताया गया कि अब सारे दलों का चुनावी काला धन तो मिट्टी बन गया है और शेष कालाबाजारियों का पैसा भी बैंकों में आने को मजबूर हो जाएगा। इससे चुनाव साफ-सुथरे होंगे और गरीबों, खासकर सूखे की मार झेल रहे किसानों को राहत, कर्जमाफी और सीधे बैंक खातों में मदद राशि भेजी जा सकेगी। कालाधन कितना निकला, इस बारे में अभी तक कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाई है। वहीं अब सरकार का कहना है किसानों की कर्जमाफी से बैंकिंग व्यवस्था का दम निकल जाएगा, लिहाजा उसकी रजामंदी के बिना इस पर फैसला संभव नहीं। वहीं सब्सिडी के लिए पैन ही नहीं, बल्कि आधार कार्ड भी अनिवार्य होगा।
जहां आम लोगों की निजता के हाल ये हैं वहीं नए कानून ने चुनावी बांड के अजीब से प्रावधान को हरी झंडी दिखा दी है। इसके जरिये उद्योगपति गुमनाम रहते हुए भी अपने पसंदीदा दल को मनचाही राशि के आयकर मुक्त बांड खरीदकर ‘डोनेट’ कर सकते हैं। इन गुप्त दानकर्ताओं का नाम बताने की कोई बाध्यता दलों की भी नहीं होगी। अब कंपनियां बिना नाम बताए आयकर खातों में दर्ज मुनाफे का 50 प्रतिशत तक सरकार को दानखाते में दे सकती हैं। बताया गया है कि इसका उपयोग बुनियादी ढांचा सुधार में होगा। अचरज नहीं कि जो अनुभवी लोग ठेकों के आदान-प्रदान में सरकार तथा निर्माता कंपनियों की मधुर साझेदारी के अनगिनत प्रमाण गुजरे बरसों में देखते रहे हैं उनको लगे कि साफ चुनावों की भैंस तो गई पानी में! अभी बजट सत्र चालू है और सांसदों को वित्त विधेयक के स्वीकृत संशोधनों की अंतिम जानकारी मिलना बाकी है। ऐसे में हम कितनी उम्मीद करें कि वाकचातुर्य की धनी सरकार इन सवालों के सही-सही जवाब जनता और उसके प्रतिनिधियों को कब देगी?
[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं

मुंबई जैसवार ( चमार ) समाज ने सिने जगत के सितारों और १० हज़ार से ज़्यादा स्वजातीय साथियों के साथ मनाई संत रविदास की जयंती।

जैसवार समाज का मुंबई में जबरजसत आगाज…

Posted by Rajesh Pasi on Sunday, March 26, 2017

मुंबई : २६ मार्च २०१७ को मुंबई में अखिल जैसवार विकास संघ ने संत रविदास की जयंती मनाई ।
जैसवार समाज यानी चमार समाज ने एक ऐसा सफल आयोजन मुंबई में किया जो अपने आप में अनोखा था ।

१० हज़ार लोगों को जी हाँ ६-७ हज़ार से ज़्यादा जैसवार के लोग थे ..और २ हज़ार से ज़्यादा अन्य समाज के लोग थे । जैसवार सामाज ने इतने लोगों को मुंबई में एकत्रित किया जो अपने आप में अनोखा था मानननिय कैलाश जैसवार और सुबचन राम जी का प्रयास बहुत सराहनीय है ।

इस कार्यकम में लँदन से मिस्टर. मालकियत बेथल ( बामसेफ़ ) , मैडम कल्पना सरोज जी , मिस्टर. तारम मेहाज जी ,देवेंद्र यादव के साथ सिने जगत के सितारे भी उपस्थित थे ।
जैकी श्रोफ , शशि कपूर , एहसान कुरेशि , तारक मेहता की दया मैडम , बिग बॉस की दीपा जी , जैसे लोग उपस्थिति थे ।

इसके अलावा भी कई बुद्ध और अंबेडकरी विचार धारा के लोग इकट्ठा थे ।

१० हज़ार से ज़्यादा लोगों का हुजूम पूरा बुद्ध मय और अम्बेडकरमय था ।

मुंबई जैसी जगह में उत्तर भारत से आकर १० हज़ार लोगों के साथ जय भीम का नारा लगाया । बुद्ध के विचारों पर चर्चा की । क्या यह आम बात है ।
न सिर्फ़ मिशन के लोगों ने बल्कि सिने जगत से जुड़े लोगों ने भी बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों पर चर्चा की ।सभी ने सिर्फ़ बुद्ध और बाबा साहेब के बारे में बात की ।
सचमुच अखिलेश जैसवार विकास संघ मुंबई में बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों को आगे बढ़ा रहे है ।
अगर मुंबई सभी समाज के लोग ऐसे ही लोगों को इकट्ठा करे तो आने वाले समय बाबा साहेब के कारवाँ को आगे बढ़ने से कोई नहि रोक सकता – अख़िलेश जैसवार , सात रास्ता, मुंबई

पासी और महार जाति एक समान है , जानिए कैसे ?

कई विद्ववानों के शोध में यह बात  सामने आई  है कि पासी राजवंश और बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी का वंश  एक ही व्रक्ष कि दो शाखाएँ हैं। 

इस बात की पुष्टि के लिए दोनों में समानताओं पर द्रष्टिपात करिए

1- महार जाति की उत्पत्ति डा0 अंबेडकर के अनुसार नागकुल से हुई है अर्थात महार नाग कुल की एक शाखा है उसी तरह पासी की उत्पत्ति भी नाग कुल से हुई है 

2- नई खोजों के अनुसार पासी शब्द भारशिव नागवंशी टाक शाखा से निकल कर गुप्तकालीन दंड-पाशिक से पासी या भर-पासी बना फिर नवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में राजपासी के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था। महार भी टाकवंशी नाग हैं। (people of Indian)

3- उ0प्र0में पासी लोगों का मुख्य कार्य शासन से बाहर होने के बाद चौकीदारी या ताड़ी निकालना पाया जाता है। महार जाति का भी मुख्य पेशा चौकीदारी पाया जाता है। 

4- पासी जाती का मुख्य गढ़ मुख्यतः उ0प्र0 और बिहार हैं तो महार जाति ,का गढ़ महाराष्ट्र है 

5- महाराष्ट्र में महार धरतीपुत्र कहे जाते हैं उ0प्र0 में पासी शासकों की भूमिका निभा चुके हैं 

6- दोनों ही जातियाँ अपराधशील रह चुकी हैं। 

7- महारों ने 1925 कट यातना झेलीं तो पासियों ने अगस्त 1952 तक जरायम एक्ट की लंबी अवधि पार की। 

8- पासी और महरों का रक्त ग्रुप ए,बी,ओ है

9- वीरता के गुण पासी और महारों में समान रूप से पाया जाता है। पासी तो दंडपासी ही था 

10- इसी लिए कहा जाता है की पासी का लट्ठ पठान ही झेले श्री अमृतलाल ने ‘एकदा नैमिषारण्य’ उपन्यास में कहा है कि बनवासी समाज को वश  में करने के किए पहेले भर और पासी लठैत भर्ती किए। महार जाती का नाम भी काठी वाला अर्थात काठीवाला कहलाता है। काठ का अर्थ लकड़ी होता है। ‘Kathi wala means man with  a stick which is word inductive of his profession 

11- उ0प्र0 में पासी यदि राजवाशी कहलाते हैं तो महार लोग सोमवंशी हैं। यानी शिव भूषण चंद्र के वंशज। पासी तो भारशिव वंशज हैं ही। 

12. पासी जाति के लोग अलग अलग टाईटल से देश के 14 राज्यो में पाये जाते है। 

(स्रोत -इतिहासकार राम दयाल वर्मा की पुस्तक, विखरा राजवंश और  भारशिव राजवंशानाम से लिया गया है। ) 

क्या सचमुच फ़ौज के बारे में ख़ुलासा करने वाले जवान तेजबहादुर की हत्या हो गई है ?


सोशल मीडिया जितना उपयोगी है उसका उपयोग करने में भी सावधानी बरतनी चाहिए ।

इंटरनेट पर मौजूद हर अफ़वाह और उड़ती खबर को सच मानने से पहले, उसकी जांच करनी कितनी ज़रूरी है, ये आपको इस ख़बर से मालूम पड़ेगा.

हाल ही में इंटरनेट पर वायरल होती एक तस्वीर में BSF जवान तेजबहादुर यादव को मृत दिखाया गया है. वही तेजबहादुर, जो फ़ौज में घटिया खाने पर वीडियो बनाकर रातों-रात सुर्खियों में आ गए थे. मामला संवेदनशील था और बीएसएफ़ जवान से जुड़ा हुआ था, शायद इसलिए ही लोग इस तस्वीर को जमकर शेयर कर रहे थे.
लेकिन कई न्यूज़ चैनलों ने जाँच किया तो पता चला है की ख़बर फ़र्ज़ी है । टाइम्ज़ की एक वेब्सायट ने भी कन्फ़र्म किया है कि तेज़ बहादुर की यह ख़बर फेंक है ।

न्यूज़ एजेन्सीयो केअनुसार  बॉर्डर सिक्योरिटी फ़ोर्स (बीएसएफ़) और यादव की पत्नी ने इन अफ़वाहों को सिरे से नकार दिया है. उन्होंने बताया कि तेजबहादुर ज़िंदा है और पूरी तरह से स्वस्थ हैं.

फ़ेसबुक और ट्विटर पर वायरल हो रही इस तस्वीर में जवान की आंखें बंद थी, नाक से खून बह रहा था और चेहरे का कुछ हिस्सा एक कपड़े से ढका हुआ था. इस जवान की तस्वीर यादव से काफी मिलती-जुलती है, पर जिसे यादव बताया जा रहा है वह दरअसल सीआरपीएफ़ का एक जवान है. कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में तैनात इस जवान की माओवादी हमले में मौत हो गई थी.
यादव की पत्नी शर्मिला यादव ने भी इन अफ़वाहों को झूठा करार दिया. उन्होंने कहा कि एक सीनियर जवान ने वायरल होती इन तस्वीरों को देख, मुझे संपर्क किया. मैंने अपने पति को फ़ोन लगाया और उनसे बात की है. वे बिल्कुल ठीक हैं और जम्मू के सांबा ज़िले में ड्यूटी पर तैनात हैं.

यादव की फ़र्जी तस्वीर के मामले में बीएसफ़ ने आधिकारिक तौर पर किसी तरह की जांच शुरू नहीं की है, पर एक अधिकारी का कहना है कि इनमें से कुछ पोस्ट्स को ऐसी आईडी से शेयर किया गया है, जिनके नाम तो भारतीय हैं, लेकिन इन पोस्ट्स की लोकेशन संदिग्ध है. ऐसे में इनकी जांच किए जाने की ज़रुरत है.

गौरतलब है कि यादव ने हाल ही में एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने बॉर्डर पर मिलने वाले घटिया स्तर के खाने की निंदा की थी. इस वीडियो में उन्होंने आर्मी अफ़सरों पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए थे.

वीडियो के वायरल होने के बाद यादव की पत्नी ने दावा किया था कि उनके पति को धमकाया जा रहा है और प्रताड़ित किया जा रहा है. हालांकि बीएसफ़ ने इन दावों को सिरे से नकार दिया था और कहा था कि यादव जम्मू में तैनात हैं और अपने परिवार से किसी भी समय बात कर सकते हैं.

तो अगली बार  यह ज़रूर ध्यान रखे की किसी तस्वीर को शेयर करने से पहले उसकी जांच-परख ज़रूर कर लेना, कहीं फ़ेक तस्वीरें शेयर करने में आप भागीदार न बन जाएं.

सोर्स – विभिन्न न्यूज़ एजेन्सी 

पासी समाज शैक्षणिक और कैरियर गाइडेन्स शिविर, मुंबई यूनिवर्सिटी 

सामाजिक कार्य करने के लिए बहुत पैसों या बहुत बड़े संगठन की ज़रूरत नहि होती । ज़रूरत होती है सिर्फ़ इच्छा शक्ति की । यह कर दिखाया है मुंबई के एक ग्रुप RCP ( Reachout countrywide Pasi) ने । बेहद सीमित संसधनो के बावजूद पासी समाज में सोशल वर्क के नए तरीक़ों और कार्यशैली से पासी समाज का ध्यान आकर्षित किया है ।

Reachout countrywide Pasi [RCP]  ने बाबा साहेब की १२५ वी जयंती के उपलक्ष्य में पिछले साल मुंबई यूनिवर्सिटी में ३एप्रिल को एक दिवसीय शैक्षणिक और कैरीयर गाइडेन्स शिविर का आयोजन किया था । ईस   साल भी बाबा साहेब की जयंती उपलक्ष्य में ९ एप्रिल २०१७ को शैक्षणिक शिविर का आयोजन कर रहा है ..
इस आयोजन की खास बाते –

१ ) भारत में पासी समाज में ऐसा कार्यक्रम एक विश्वविद्यालय के प्रांगण में होगा जी हाँ RCP यह कार्यक्रम मुंबई यूनिवर्सिटी में होता है ।

2. गाइडेन्स देने वाले और लेने वाले दोनो ही पासी समाज से होंगे । 

3. यह प्रोग्राम शानदार एसी हॉल में होगा ताकि हमारे समाज के बच्चों पर इसका पॉज़िटव असर पड़े उन्हें भी पता चले की समाज की अब वह पहचान नहि है जो पहले थी 

4. Projector और कम्प्यूटर का उपयोग किया जाएगा 

5. १०० + विद्यार्थी के और उतने ही पेरेंट की एक साथ बैठने की सुविधा है

6. लंच ब्रेक में सभी विद्यार्थियों और पेरेंट के लिए नी:शुल्क मिनी लंच की वस्था है ।

7. पहली बार होगा जब हमारे समाज के बच्चे बिना ग्रैजूएशन में पहुँचे कम उम्र में यूनिवर्सिटी की सैर करेंगे नोलेज प्राप्त करेंगे। कई बार हमारे समाज के बच्चे ग्रैजूएशन तक पहुँचते ही नहि बहुत से बच्चे १२ वी तक पहुँचते पहुँचते ड्रॉप आउट हो जाते है । कम उम्र में यूनिवर्सिटी पहुँचने पर कम से कम एक लक्ष्य तो होगा की यूनिवर्सिटी तक पहुँच कर पढ़ाई करनी है ।

8. मार्गदर्शन करने वाले अपने ही समाज से है जो उन्ही परिस्थितियों से गुज़रे है जहाँ से अधिकतर अपने समाज के बचे गुज़र रहे है मार्गदर्शन देने वाले जानते है की हमारे बचो में भविष्य के लिए कैसे कॉन्फ़िडेन्स बढ़ना है 

9. समाज के ६ अलग अलग क्षेत्रों में सफलता पाए इस आयोजन के मार्गदर्शक अपना इक्स्पिरीयन्स बच्चों से साझा करेंगे।

10. और सबसे बड़ी बात यूनिवर्सिटी के इस आयोजन में पासी समाज के सभी बच्चों को और उनके पेरेंट को एंट्री बिलकुल फ़्री है ।
प्रमुख मार्गदर्शक (२०१६)

राजेश पासी CMA-Inter , B.Com

Corporate Manager 
भरत पासी B.Com

 Solution Architect – IT ( USA return )
राकेश कुमार -BE, ME (electronic and telecommunication), Lecturer at St Xavier’s Technical institute
बृजेश सरोज – IIT IAN
प्रभावती सरोज Mcom, CA and CS final

Sr. Officer- Accounts
संजय जी M.Sc. Physics .MLS

Ex. Member of Senate [ University of Mumbai ]
राकेश सरोज – B.A.(Hons.),MBA, भारत सरकार 
सुरेशचंद्र पासी – BE(computer),MBA(MSW)

AYM INDIAN RAILWAY
डा० ज्योति सरोज – MBBS

 
आप लोग प्रतसोहन करने के लिए  इस मैसेज को मुंबई से जुड़े लोगों और मुंबई के आस पास के लोगों में शेयर कर सकते है ताकि जयदा से ज़्यादा समाज के बचे लाभविनीत हो 
इन कार्य्क्र्मों के बारे में जानकारी या RCP के बारे में जानकारी के लिए लिए सम्पर्क करे – 

सुधीर सरोज – +91 9221993017

राम आसरे सरोज -+91 9870836502

राजेश पासी – 9594356043

पवन रावत -+91 9004415094

शोभा सरोज – 097681 75191 ( केवल महिलाओं के लिए )

शहीद दिवस के अवसर पर शहीद भगत सिंह की कृति “मै नास्तिक क्यो हु ” का विवरण उन्हे समर्पित 

”  शहीदों की मजारों लगेंगे हर वर्ष मेले 

    वतन पर मरने वालों का यही बाकि निशां होगा ।  

अमर शहीद भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर उन्हे भावपुर्ण श्रध्दांजलि !

आज के दिन ही भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फाँसी दे दी गई। फाँसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए।

कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फाँसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा – “ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।” फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले – “ठीक है अब चलो।”

फाँसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे –

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, मेरा रँग दे;

मेरा रँग दे बसन्ती चोला। माय रँग दे बसन्ती चोला।।

ऐसे थे भगत सिंह व उनके साथी जिन्होंने मौत को भी खुशी से अपनाया, हंसते हुए गले लगाया| अब भगत सिंह के द्वारा लिखा लेख “मै नास्तिक क्यो हु” की चर्चा कर लेते है ।

भगतसिंह (1931)

मैं नास्तिक क्यों हूँ?


यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । यहभगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है।

स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह 1930-31के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में कैद थे। वे एक धार्मिक व्यक्ति थे जिन्हें यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगतसिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुँचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा, “प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है। इस टिप्पणी के जवाब में ही भगतसिंह ने यह लेख लिखा।


एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूँ? मेरे कुछ दोस्त – शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूँ – मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूँ और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कामरेडो के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौकों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निन्दा भी की गयी। कुछ दोस्तों को शिकायत है, और गम्भीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार, उन पर थोपता हूँ और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूँ। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहाँ तक अन्य प्रचलित मतों के मुकाबले हमारे अपने मत का सवाल है। मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमण्ड नहीं कहा जा सकता। घमण्ड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है। क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का खूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर खूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?

मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूँ कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है? किसी वास्तव में महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूँ – यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूँ या मेरे अन्दर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिये आवश्यक हैं। यहाँ तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बन्द कर दे? दो ही रास्ते सम्भव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूँ। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धान्त को ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वन्द्वी हूँ, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिये आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयन्त्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूँ।

मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फँसने का कोई मौका ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी। मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी0 ए0 वी0 स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घण्टों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहाँ तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिये अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ आकर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं – यहाँ तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लम्बे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिक्ख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। किन्तु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। वहाँ जिस पहले नेता से मेरा सम्पर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठ पूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘’जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।’’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं सम्पर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षडयन्त्र केस के सिलसिले में आजीवन कारवास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बन्दी जीवन’ ईश्वर की महिमा का ज़ोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदान्त के कारण बरसाये हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) पर्चा बाँटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गयी है। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब मे सिर्फ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘’दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है। वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है। परन्तु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।

इस समय तक मैं केवल एक रोमान्टिक आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कन्धों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूँज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिये अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता माक्र्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।

मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहाँ काकोरी दल का मुकदमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किये थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिये भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूँ, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जायेगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किये बेगैर रिहा कर दिया जायेगा और इनाम दिया जायेगा। मैं इस प्रस्ताव पर हँसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भाँति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सी0 आई0 डी0 के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से सम्बन्धित विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिये मुकदमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फाँसी पर लटकवाने के लिये उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिये फुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था। मैं स्वयं के लिये यह बात तय करना चाहता था कि क्या शान्ति और आनन्द के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दम्भ भरता हूँ या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धान्तों पर अडिग रह सकता हूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिये भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूँ। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहाँ तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पाँवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन् कोई अन्य शक्ति है। आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अन्दर ही यह घोषित हो जायेगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूँ। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सान्त्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिये पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किन्तु मैं क्या आशा करूँ? मैं जानता हूँ कि जिस क्षण रस्सी का फ़न्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा – वह अन्तिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जायेगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी – यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहाँ या यहाँ के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएँ मिल जायेंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिये उत्प्रेरित होंगे। इस लिये नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहाँ या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिये इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिये ख़तरनाक किन्तु उनकी महान आत्मा के लिये एक मात्र कल्पनीय रास्ता है। क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कहकर उसका गलत अर्थ लगाया जायेगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गयी हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?

आलोचना और स्वतन्त्र विचार एक क्रान्तिकारी के दोनो अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास को सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जायेगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खण्डन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निन्दा की जायेगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूँ कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अन्तः प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूँ। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूँ। प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहाँ सीधा प्रमाण नहीं है, वहाँ दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फुरसत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहाँ से को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढ़ंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अन्तर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अन्तर है। पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में ज़रा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग है, जिसमें स्वयं आर्यसमाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाये जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतन्त्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं।

सिर्फ विश्वास और अन्ध विश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेगा। तब नये दर्शन की स्थापना के लिये उनको पूरा धराशायी करकेे जगह साफ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निमाण करना। मैं प्राचीन विश्वासांे के ठोसपन पर प्रश्न करने के सम्बन्ध में आश्वस्त हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आन्दोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं।

यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बतायें कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है। नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगांें की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिये। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाये जाते हैं। पन्ने उसकी निन्दा के वाक्यों से काले पुते हैं, भत्र्सना करते हैं – नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खाँ ने अपने आनन्द के लिये कुछ हजार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घण्टे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खाँ से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है? ठीक है, ठीक है। तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहाँ तक उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि, यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी? इसलिये मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनन्द लूटने के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?

तुम मुसलमानो और ईसाइयो! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है। कारावास की काल-कोठरियों से लेकर झोपड़ियों की बस्तियों तक भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से लेकर उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानवशक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा, और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने से लेकर राजाआंे के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे – सब कुछ ठीक है! क्यों और कहाँ से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूँ।

और तुम हिन्दुओ, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताकत है। न्यायशास्त्र के अनुसार दण्ड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं – प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धान्त की निन्दा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है। सुधार करने का सिद्धान्त ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिये अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किन्तु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दण्डों को गिनाते हो। मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं? अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है। गरीबी एक अभिशाप है। यह एक दण्ड है। मैं पूछता हूँ कि दण्ड प्रक्रिया की कहाँ तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का क्या भाग्य होगा? चूँकि वह गरीब है, इसलिये पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊँची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊँचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोेगेगा? ईष्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दण्ड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों – वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सजा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धान्त विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं। अपटान सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी सम्पत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाये इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबन्धन से ही जेल, फाँसी, कोड़े और ये सिद्धान्त उपजते हैं।

मैं पूछता हूँ तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूँजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें? आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह लागू करे। जहाँ तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज को सही तरीके से कर दे। अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिये नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिये कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध – एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण – सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहाँ है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूँ। चाल्र्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरान्त सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यन्त विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, समप्रदाय, पन्थ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है।

मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिये उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा सम्पन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिये ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती ह,ै तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यन्त क्लेष में हो, तब उसे इस विचार से सान्त्वना मिल सकती हे कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था। पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भाँति फाँसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊँचा किये खड़ा रहना चाहता हूँ।

हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूँ। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी तो उसने कहा, ‘’अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।’’ मैंने कहा, ‘’नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूँ। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूँगा।’’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूँ।


Date Written: 1931
Author: Bhagat Singh
Title: Why I Am An Atheist (Main nastik kyon hoon)   

        

               प्रस्तुति :-

                         अमित कुमार 

                          दिनारा रोहतास