महिला दिवस पर विशेष

स्त्री और पुरुष में शारीरिक संरचना के आधार पर भले अलग हो बल्कि यूँ कह लीजिए कि कुदरत का यही विभेद ही उनकी अपनी  ख़ासियत भी है लेकिन उनकी जीवन की जरूरतें लगभग एक तरह की है। जैसे भूख,प्यास,थकान,बीमारी आदि आदि। 

परन्तु सौन्दर्य बोध की गलत अवधारणा ने महिलाओ और पुरुषों को एक प्रतियोगिता में शामिल कर दीया है। 
            हवाई जहाज से लेकर दाड़ी बनाने वाली ब्लेड का प्रचार भी बिना स्त्री के पूरा नही होता यहाँ तक की महिलाओं के बिना गाली दे कर किसी का विरोध और प्यार भी न जताया जा सकता है।
  महिलां आजादी की  बात भी उठी तो विदेशी महिलाओं की तरह शारीरिक आजादी तक ही सिमित रह गयी और आर्थिक आजादी को दरकिनार किया गया। 
      और हमने स्वछन्दता को ही आजादी की परिभाषा बता डाली। आजादी का मतलब नियमो और कानूनो के दायरे में रहना और स्वछन्दता का मतलब बिना नियम कानून के समाज में जीवन यापन करना । हम लड़की को लड़के की तरह बनाने और लड़की लड़के से कम नहीँ होती । यह बताने में ही हम शेखी बघारने लगे और कुदरत की इस विविधता को घृणा में बदल दिया।
इसलिए महिला दिवस के इस अवसर पर कुदरत की इस विविधता का सम्मान करते हुए आधुनिक और वैज्ञानिक समाज बनाने के लिए संकल्पबद्ध हो | niraj pasi mob.9839782772

​महिला दिवस पर वीरांगना उदा देवी पासी की याद 

वीरांगना उदा देवी यह नाम भारत की उस वीर नारी का है जिसने भारत की आज़ादी की क्रांति को गर्म हवा देने के लिए अंग्रेजो के 36 सिपाहियो को मार गिराया था। ऐसी घटना विश्व के किसी देश में पढ़ने और सुनने को नही मिलती । देश के खातिर अपनी जान की बाज़ी लगाकर बहादुरी के साथ दुश्मनो से लड़कर शहीद होने वाली वीरांगना उदा देवी भारत में महिला संम्मान और स्वभिमान की एक मात्र प्रतीक बनकर उभरी है। देश की सवर्णवादी जातीय मानसिकता के कारण हम कई बार गुलाम हुए। इसलिए कि देश में लड़ने की जिम्मेदारी केवल एक जाति को सौंपी गई थी। सोचिये अगर उदा देवी जैसे सैकड़ो बहादुर महिलाओं की फ़ौज हमारे पास होती तो क्या तब भी देश  गुलाम हो पाता ? इसी तरह पुरुषों की भी एक लंबी फेहरिस्त है । जिन्हें लड़ाई से दूर रखा गया । सवर्ण महिलाओ को सिर्फ भोग का वस्तु बनाकर रखा गया। तो अवर्णों ने  महिलाओं को  चूल्हे, चौके सहित खेती बारी तक सीमित रखा। पुरुषवादी मानसिकता ने उसे कभी एहसास ही नहीं करने दिया कि वह भी समाज और देश की समस्याओं पर खुलकर अपनी बात रख सकती है। और जरूरत पड़ने पर देश की रक्षा के लिए हथियार भी उठा सकती है। लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई कोरी , दुर्गा भाभी ,फूलन देवी निषाद , ने देश और समाज के लिए क्या कुछ नहीं किया ? लेकिन हमारे देश के पुरुषवादी मानसिकता के महिलाओ की बहादुरी को नोटिस नही किया गया।  यंहा तक की उनकी स्मृति में बने पार्क और प्रतिमाओं को निशाना बनाया जा रहा। कितनी शर्म की बात है कि पिछले महीनो कानपुर में उदा देवी पासी के नाम बने पार्क को सरकार ने तोड़ दिया । 

आज़ादी के बाद ड़ॉ अम्बेड़कर द्वारा संबिधान ने उन्हें बराबरी का अधिकार दिया।  शिक्षा के साथ ही उन्हें देश और समाज की नीतिया बनाने में भी भागी दार बनाया जा रहा है । आज कई उदाहरण हमारे सामने है। फिल्म, उधोग, शिक्षा , समाज, पा, मिडिया के साथ ही राजनीति के उच्च पदों पर आप महिलाओं की भागीदारी को देख पा रहे है।  बावजूद इसके बहुत से सेक्टरों में अभी  इन्हें जाना शेष है । इसके लिए हम सबको अपने पुरुषवादी मानसिकता से निकलकर उनके साथ आगे बढ़ना होगा। – अजय प्रकाश सरोज

आज़ादी की नायिका शाहिद वीरांगना उदा देवी पासी

दबे मन से दिया बसपा को वोट

मन तो नही किया लेकिन हाथी को वोट कर दिया !

मेरी माँ ने कँहा कि मन तो नहीं कर रहा था कि मायावती को वोट दें लेकिन दे दिया। मित्र सोनू ने पूछा कि क्यों मम्मी ,बोली ” सोनू भइया चमारव् कबहु पासी के वोट नाही देत है लेकिन पासी ,चमारन के वोट दई देत थिन ” का करी अब केका देइत ? मायावती कुछ देता त नाही मगर थोड़ा बहुत शासन टाइट रखत है।

दर असल आज शहर से वोट देने के लिए मित्र सोनू के साथ गाँव गया जैसे ही घर पर पंहुचा तो माता श्री वोट देकर वापस लौटी थीं । यूँही मित्र सोनू ने पूछ लिया तो माता जी का जबाव सुनकर हम लोग चकित हो गए

# –अजय प्रकाश सरोज

​समावेशी विकास

भारत में समावेशी विकास की अवधारण कोई नई नहीं है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों का यदि अवलोकन करें, तो उनमें भी सभी लोगों को सात लेकर चलने का भाव निहित है। सर्वे भवन्तु सुखिन में भी सबको साथ लेकर चलने का ही भाव निहित है, लेकिन नब्बे के दशक से उदारीकरण की प्रक्रिया के प्रारम्भ होने से यह शब्द नए रूप में प्रचलन में आया, क्योंकि उदारीकरण के दौर में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को भी आपस में निकट से जुड़ने का मौका मिला और अब यह अवधारणा देश और प्रान्त से बाहर निकलकर वैश्विक सन्दर्भ में भी प्रासंगिक बन गई है। सरकार द्वारा घोषित कल्याणकारी योजनाओं में इस समावेशी विकास पर विशेष बल दिया गया और 12वीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 का तो सारा जोर एक प्रकार से त्वरित, समावेशी और सतत् विकास के लक्ष्य हासिल करने पर है, ताकि 8 फीसद की विकास दर हासिल की जा सके।

क्या है समावेशी विकास?
समान अवसरों के साथ विकास करना ही समावेशी विकास है। दूसरे शब्दों में ऐसा विकास जो न केवल नए आर्थिक अवसरों को पैदा करे, बल्कि समाज के सभी वर्गो के लिए सृजित ऐसे अवसरों की समान पहुंच को सुनिश्चित भी करे हम उस विकास को समावेशी विकास कह सकते हैं। जब यह समाज के सभी सदस्यों की इसमें भागीदारी और योगदान को सुनिश्चित करता है। विकास की इस प्रक्रिया का आधार समानता है। जिसमें लोगों की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि समावेशी विकास में जनसंख्या के सभी वर्गो के लिए बुनियादी सुविधाओं यानी आवास, भोजन, पेयजल, शिक्षा, कौशल, विकास, स्वास्थ्य के साथ-साथ एक गरिमामय जीवन जीने के लिए आजीविका के साधनों की सुपुर्दगी भी करना है, परन्तु ऐसा करते समय पर्यावरण संरक्षण पर भी हमें पूरी तरह ध्यान देना होगा, क्योंकि पर्यावरण की कीमत पर किया गया विकास न तो टिकाऊ होता है और न समावेशी ही वस्तुपरक दृटि से समावेशी विकास उस स्थिति को इंगित करता है। जहां सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की उच्च संवृद्धि दर में परिलक्षित हो तथा आय एवं धन के वितरण की असमानताओं में कमी आए।
समावेशी विकास की दशा और दिशा–

आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश की एक चौथाई से अधिक आबादी अभी भी गरीब है और उसे जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में भारत में समावेशी विकास की अवधारणा सही मायने में जमीनी धरातल पर नहीं उतर पाई है। ऐसा भी नहीं है कि इन छह दशकों में सरकार द्वारा इस दिशा में प्रयास नहीं किए गए केन्द्र तथा राज्य स्तर पर लोगों की गरीबी दूर करने हेतु अनेक कार्यक्रम बने, परन्तु उचित अनुश्रवण के अभाव में इन कार्यक्रमों से आशानुरूप परिणाम नहीं मिले और कहीं तो ये कार्यक्रम पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। यही नहीं, जो योजनाएं केन्द्र तथा राज्यों के संयुक्त वित्त पोषण से संचालित की जानी थीं, वे भी कई राज्यों की आर्थिक स्थिति ठीक न होने या फिर निहित राजनीतिक स्वार्थो की वजह से कार्यान्वित नहीं की जा सकीं।
समावेशी  विकास ग्रामीण तथा शहरी दोनों क्षेत्रों के संतुलित विकास पर निर्भर करता है। इसे समावेशी विकास की पहली शर्त के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान में हालांकि मनरेगा जैसी और भी कई रोजगारपरक योजनाएं प्रभावी हैं और कुछ हद तक लोगों को सहायता भी मिली है, परन्तु इसे आजीविका का स्थायी साधन नहीं कहा जा सकता, जबकि ग्रामीणों के लिए एक स्थायी तथा दीर्घकालिका रोजगार की जरूरत है। अब तक का अनुभव यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सिवाय कृषि के अलावा रोजगार के अन्य वैकल्पिक साधनों का सृजन ही नहीं हो सका, भले ही विगत तीन दशकों में रोजगार सृजन की कई योजनाएं क्यों न चलाई गई हों। सके अलावा गांवों में ढ़ांचागत विकास भी उपेक्षित रहा फलतःगांवों से बड़ी संख्या में लोगों का पलायन होता रहा और शहरों की ओर लोग उन्मुख होते रहे। इससे शहरों में मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ती गई तथा अधिकांश शहर जनसंख्या के बढ़ते दबाव को वहन कर पाने में असमर्थ ही हैं। यह कैसी विडम्बना है कि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहीं जाने वाली कृषि अर्थव्यवस्था निरन्तर कमजोर होती गई और वीरान होते गए, तो दूसरी ओर शहरों में बेतरतीब शहरीकरण को बल मिला और शहरों में आधारभूत सुविधाएं चरमराई यही नहीं रोजी-रोटी के अभाव में शहरों में अपराधों की बढ़ ई है।
वास्तविकता यह है कि भारत का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां कृषि क्षेत्र से इतर वैकल्पिक रोजगार के साधन पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, परन्तु मूल प्रश्न उन अवसरों के दोहन का है सरकार को कृषि में भिनव प्रयोगों के साथ उत्पादन में बढ़ोतरी सहित नकदी फसलों पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। यहां पंचायतीराज संस्थाओं के साथ जिला स्तर पर कार्यरत् कृषि अनुसंधान संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है जो किसानों से सम्पर्क कर कृषि उपज बढ़ाने की दिशा में पहल करे तथा उनके समक्ष आने वाली दिक्कतों का समाधान भी खोजे तभी कृषि विकास का इंजन बन सकती है। कृषि के बाद सम्बद्ध राज्य में मौजूद घरेलू तथा कुटीर उद्योगों के साथ पर्यटन पर भी ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। सरकार को आर्थिक सुधारों के साथ-साथ कल्याणकारी योजनाओं जैसे मनरेगा, सब्सिडी का नकद अन्तरण आदि पर भी समान रूप से ध्यान देना होगा।
भारत की विकास दर, जो वर्ष 2012-13 में पांच फीसद है, वह पिछले दस वर्षो में सबसे कम है वर्ष 2013-14 की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है भारतीय रिजर्व बैंक ने विकास दर की सम्भावना को घटाकर 5.5 कर दिया है। वर्ष 2002-03 में विकास दर चार फीसद थी, लेकिन उस समय भयंकर सूखे की वजह से ऐसा हुआ था, लेकिन इस बार ऐसी कोई बात नहीं है। समावेशी विकास हेतु श्रम बहुल विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देना ही होगा। यदि विकास दर में 8-9 फीसद प्रतिवर्ष चाहते हैं, तो विनिर्माण क्षेत्र को 14-15 फीसद प्रतिवर्ष की दर से सतत् आधार पर विकास करना होगा। जापान,कोरिया तथा चीन में विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति देखें, तो यह संघ के संघटक रूप में भारत की तुलना में काफी अच्छी है।
चीन में जहां यह 42 फीसद, दक्षिण कोरिया में 30 फीसद तो भारत में मात्र 16 फीसद है। कुच समय पहले घोषित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति एनएमपी का उद्देश्य भारत में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को 2021-22 तक 16 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसद करना और अतिरिक्त 100 मिलियन रोजगार अवसर प्रदान करना है इस हेतु भारत के प्राचीनतम श्रम कानून में जो विश्व में सबसे ज्यादा सख्त है, संशोधन करना होगा, ताकि वे कामगारों की सुरक्षा के उनकी रोजी-रोटी को भी बचा सके पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिण क्षेत्रों के समर्पित माल ढुलाई गलियारा डेडिकेटेड फ्रेट कोरिडोर्स का त्वरित कार्यान्वयन करना होगा। स्मरम रहे कि इसमें दक्षता विकास के जरिए जॉब प्रशिक्षण की व्यवस्था है। 

जब चमार ने पासी नौजवानों से कहा मायावती तुम्हारी मजबूरी

पासी नौजवानों के बीच बैठा एक चमार ने ताना मारते हुए कँहा जब तक मायावती जिन्दा है हम और हमारा समाज उन्ही के साथ रहेगा।आप को जंहा मन हो वंहा जाइये ।

सब स्तब्ध हो उठे ! राजू पासी बोले कैसी बात कर रहे हो क्या बसपा को केवल चमारो ने बनाया था ? बोला नही ।
फिर ऐसी बात क्यों कर रहे है ? क्योकि हम जानते है पासी कंही जा ही नहीं सकता ।

उसको कंही और सम्मान नहीं मिलेगा ? हम लोगो ने पासियों को इतना बदनाम कर दिया है की पासी की मजबूरी है मायावती को वोट करे।

बगल में बैठे नीरज पासी ने कंहा जैसे तुम दुत्कार रहे हो ऐसी ही बहन जी भी पासी नेताओ को दुत्कारती है । लेकिन पासी नेता अपने स्वार्थ के लिये मायावती का दुत्कार सहन करता बसपा के लिए खून पसीना बहाता रहता है। और पासी समाज वोट भी देता है।

मतलब यह की हम तुम्हें न सम्मान देंगे और न इस लायक छोड़ेंगे कि तुम कंही सम्मान पा सको ।
#है न ब्रह्मवादी नीति