पासियों में नई पार्टी बनाकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला फेल हो चुका हैं – डॉ.अजय प्रकाश

●भाजपा छोड़ी , बसपा-सपा नें ठुकराया तो कांग्रेस नें गलें लगाया लेकिन नही टिकी सावित्रीबाई फुले

बीजेपी से बहराइच लोकसभा की सांसद रह चुकी सावित्रीबाई फूलें संसद से लेकर सड़क तक सामाजिक न्याय और संविधान बचाने की वकालत करने वाली नेता हैं .सांसद सदस्य रहतें हुए उन्होंने अपनी ही पार्टी भाजपा के खिलाफ मुखर होकर दलितों पिछड़ो के हक़ में आवाज उठाती रहीं हैं.
इनके पीछें विपक्षी पार्टी ख़ासतौर पर बसपा से जुड़े लोगों का समर्थन प्राप्त था. उन्हें यह भरोशा दिलाया गया था कि आप इसी तरह भाजपा के विरोध में आवाज़ उठाती रहें आपको अगला चुनाव बसपा टिकट देकर लड़ाएगी .

उनके सिपह सलाहकार खुद को कांशीराम का अनुवाई बताने वालें अक्षयबरनाथ कनोजिया जिन्हें वह अपना गुरु बताती हैं और प्यार से’ चाचा ‘कहतीं हैं , ने बसपा के ज़िम्मेदार लोगो से बातचीत भी कर चुकें थें । यह माना जा रहा था कि फूले अगला चुनाव बसपा से लड़ेंगी . उनके समर्थक यहां तक कहने लगें थें, कि फूलें ,बहन मायावती के बाद बसपा में दूसरें नम्बर की नेता होंगी ?

इससे आश्वस्त होकर सावित्रीबाई फूलें नें भाजपा से बग़ावत कर दीं और पार्टी छोड़कर आंदोलन की राह पकड़ लीं . लेकिन शायद फूलें को बसपा के इतिहास और मायावती की महत्वाकांक्षा का अंदाज़ा नही रहा होगा कि जिस अनुसूचित जाती पासी समुदाय से वह आती हैं उसे राजनैतिक हाशिये पर ठकेंलने में मायावती कोई भी मौका नही छोड़ती .इसकी चर्चा फिर कभी करूँगा , लेकिन फूलें के सामाजिक न्याय की तेवर से बहुजन समाज में उनके प्रति आकर्षण को मायावती की दुरगामी नज़र नें पहचान लिया और 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती के निर्देश पर उनके स्वाजातीय कोआर्डिनेटरों नें फूलें को महत्व देना बंद कर दिया ।

इसके बाद फूलें नें समाजवादी पार्टी की तरफ़ रुख किया ,और लखनऊ में अखिलेश यादव से मुलाक़ात किया यह माना जा रहा था कि दलित वोटरों के लिए अखिलेश यादव फूलें को टिकट देकर चुनाव लड़ाएंगे लेकिन जब तक यह सब तय हो पाता मायावती नें नया दांव चलकर समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया . इस गठबंधन को दलित- पिछड़ा- मुसलमान का बेजोड़ गठबंधन के रूप में देखें जानें से अखिलेश यादव नें मायावती के दबाव में अपनी पार्टी में पूर्व मंत्री आरके चौधरी समेत पासी समाज के नेताओ को नजरअंदाज कर सावित्रीबाई फूलें को टिकट नही दिया .

अब सावित्रीबाई फूलें के समाने राजनैतिक पहचान बचाने का संकट आ गया फिर उन्होंने कांग्रेस की तरफ़ हाथ बढ़ाया और तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के समक्ष पार्टी की सदस्यता लीं और पुनः बहराइच लोकसभा से चुनाव लड़ी हालाकि यह इस चुनाव में उन्हें सफ़लता नही मिलीं । लेकिन यूपी में कांग्रेस पार्टी के लिए सावित्रीबाई फूलें जैसी बेबाक़ नेता की जरूरत थीं इसीलिए यूपी की प्रभारी प्रियंका गाँधी नें इलाहाबाद से वाराणसी तक कि गंगा यात्रा में तमाम वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर फूलें को साथ साथ लेकर चलीं तो राजनैतिक गलियारों में सावित्रीबाई की चर्चा जोर पकड़ ली, लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद सावित्रीबाई फूलें की पारम्परिक सीट बलहा (सुरक्षित) जहां से वह पहली बार विधायक बनी थीं .उस विधानसभा पर उपचुनाव होना था जिसके लिए उन्होंने अपने सिपहसलाकर ‘चाचा’ के लिए टिकट की मांग कर दीं जिस पर पार्टी नें असमर्थता ज़ाहिर की, बस यहीं से उनकी दिलचस्पी पार्टी में कम सामाजिक कार्यक्रमों में ज्यादा हो गई और अब अचानक कांग्रेस पार्टी छोड़कर अपनी खुद की नई पार्टी बनाने की बात कर रहीं हैं।

अब सवाल उठता हैं कि पिछले तीस सालों से सपा बसपा अब भाजपा के बनें बनाये जनाधार के बीच खुद के नेतृत्व वाली नई पार्टी को कैसें बढ़ा पाएंगी ? जबकि प्रदेश में दर्जनों पार्टियां हैं जो पन्द्रह से बीस वर्षों से संघर्ष कर रहीं हैं फिर भी चुनाव में उनका कोई वजूद नही बन पाता ! प्रदेश में कई बड़े नेताओं का उदाहरण उनके समाने हैं जिनके सारें प्रयोग फेल हो चुकें हैं । ऐसा भी नही हैं कि आगें कोई सफ़ल नही होगा लेकिन चुनावी राजनीति करने वालीं सावित्रीबाई फूलें को भी इन सभी सवालों पर विचार करना चाहिए फिर अपनी रणनीति तय करके आगें बढ़ना चाहिए । वरना आने वालें दिनों में उनके समर्थकों की थकान उन्हें हताश व निराश करेंगी फिर कहीं न कहीं यह निष्कर्ष निकलेगा की समाज के लोगों ने साथ नही दिया .

(लेखक : पत्रिका के मुख्य संपादक हैं www.shripasisatta.com )

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