मेरे कई मित्रों ने मुझे सोशल मीडिया और फोन के मध्यम से कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई पर आपने कोई आलोचनात्मक टिप्पणी क्यों नही कीं ? यह जानते हुए भी वें दलित -पिछड़ा विरोधी ,ब्राह्मणवादी और संघी थें।
उन्ही के समय मे आरक्षण को प्रभावहीन बनाने हेतु उदारीकरण ,निजीकरण की नीति खूब फली फूली । जिसका खमियाजा आज तक दलित पिछड़ो को भुगतना पड़ रहा है। यहीं वह शक्श था जिसने मायावती को मिलाकर मान्यवर कांशीराम और मुलायम सिंह को तोड़कर दो अलग दिशाओं में भेज दिया । जो फिर कभी नही मिल सकें।
प्रधानमंत्री रहते इसने ही जातिगत जनगणना पर रोक लगाया था और तत्कालीन गृहमंत्री आडवाणी के हवाले से कहलवाया था कि जातिगत जनगणना होने से जातिवाद बढ़ेगा, जातीय दंगे होंगे ,हिंसा फैलेगी जिससे देश को खतरा होगा । पेंसन योजना भी इसने ही समाप्त किया था। बाल्को और सेंटोर घोटाला जैसा भृष्टाचार , कंधार समझौते में खूंखार आतंकवादी मसूद अज़हद को छोड़ने का काम भी इन्ही के समय हुआ था । बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराने गये संघियों को भी इन्होंने ही उकसाया था।
यहीं नही देश के साथ गद्दारी करने में भी यह पीछे नही था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के समय पर यहीं आदमी अंग्रेजों का सरकारी गवाह बनकर दो क्रांतिकारियों को सजा दिलाया था। तमाम आरोप फेसबुक और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से निकल रहें है। यहाँ तक कि कईयों ने उनके चरित्र पर भी गम्भीर आरोप लगाए और लिखा कि अटल जी शराब और शबाब के शौकीन थें । बिना शराब और भांग के उनसे कविता नही पढ़ी जाती थीं ।
आदि अनेकों अनेक आरोप और आलोचनात्मक टिप्पणी सोशल मीडिया के जरिये लोगो ने की है। इनमे बहुजन समाज के चिंतक ज्यादा शामिल है। यह भी प्रश्न उठा कि सवर्ण खासतौर पर ब्राह्मण समुदाय के लेखक और पत्रकार अटल जी पर आलोचनात्मक टिप्पणियां क्यों नही की ? यह भी शोध का विषय है कि क्यों ?
सवालों के घेरें में मैं सोच रहा था कि यह आज़ादी हमारें समाज के लोगों को कब ,कैसे और क्यों मिली ? शायद सोशल मीडिया न होता तो इन्हें अपनी भावनाओं को इतनी तेज़ी से ब्यक्त करने का अवसर न मिल पाता ! क्योंकि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर ब्राह्मणवादी शक्तियों का कब्जा हैं।
खैर ,बात कर रहा था कि जुगाड़ से जीते जी भारतरत्न पाने वाले अटल बिहारी जी की , कि मैंने आलोचना क्यों नही की ? तो मेरा जवाब इस प्रकार है ” किसी भी ब्यक्ति के मरने पर मैं तब तक आलोचना नही करता जब तक उसकी अंत्येष्ठी न हो जाएं । एक पत्रकार के नाते यह मेरी कमजोरी भी हो सकती हैं। इस विचार को चाहे भारतीय संस्कृति का चोला पहनाया जाएं अथवा नहीं , इससे मुझे तानिक भी फर्क नही पड़ता । क्योंकि मेरे हृदय में जो भावना आती हैं मैं उसे ही प्रकट करता हुँ । मेरा मन खुला है जिसमे सभी विचारों का आना जाना लगा रहता हैं लेकिन यह जरूरी नही की मैं उन सभी विचारधाराओं से प्रभावित हुँ ।
मेरा जो अपना है वह हमेशा रहेगा , वो है इस देश मे जातियों के रहतें जातीय न्याय की माँग । जिसके लिए जातिगत जनगणना जरूरी हैं। और यहीं मेरी राजनैतिक आस्था भी हैं । जो इसके विरोध में होगा उसकी आलोचना भी करूँगा । जो समर्थन में रहेगा वहीं मेरा साथी ,उसी का मैं राजनीतिक समर्थक ।
एक बार पुनः उन्हें श्रद्धांजलि !!! इस उम्मीद के साथ कि अगर उनका पुनर्जन्म भारत मे हो तो , वों किसी सामंतवादी, ब्राह्मणवादी, मनुवादी गाँव में किसी दलित /आदिवासी के घर जन्में । जँहा उन्हें छुआछूत, भेदभाव का सामना करना पड़े । ताकि उन्हें पता चले इस देश में दलितों -आदिवासियों का जीवन कैसे होता है ?
–अजय प्रकाश सरोज , संपादक, श्री पासी सत्ता पत्रिका