कविता =  © मन की सीमितता

मन की सीमाओं में सीमित  है

पंछी सा जीवन अपना,

परिधि के अंदर ही अंदर 

देख रहा दुनिया का सपना।

अगर न होती ये सीमाएं

जो बन कर के दीवार खड़ी,

तो इन गहरी आंखों में भी

होती दुनिया की तस्वीर पड़ी।

जैसे पिजड़े का पंछी 

नभ में मन से उड़ता है,

नभ क्या वह तो बाधा अंदर

रहता सब कुछ सहता है।

ये सीमाये जो बहुजन के

जीवन को सीमित कर देती,

सब कुछ अंदर ही अंदर 

रहने को पीड़ित कर  देती। 

हो बहुत ओज है सब नकाम

यह दुनिया बहुत विरल है ,

कौन कहा कब पता नहीं है

नहीं सीमा लांघना सरल है।

है बाधा आगे ,बाधा पीछे

चहुँ ओर दीखता है बाधा,

बाधा में ही जीवन जन्मा 

मरते दम तक है बाधा।

तोड़ दो बहुजन मन का बन्धन 

सीमा की परिधि बड़ी करो,

आत्मबल और संयम के बूते

लम्बी लकीर खड़ी करो ।

लेखक – रामकृष्ण ,वरिष्ठ सहायक
 (क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालय  इलाहबाद)

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