मोदी जी का इज़राइल दौरा यहूदी और भारतीय चितपावन ब्राहम्णो के सम्बंध को मज़बूत करने के इरादे से तो नही ? 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेपताहूँ
आरएसएस की स्थापना चितपावन ब्राह्मणों ने की और इसके ज्यादातर सरसंघचालक  अर्थात् मुखिया अब तक सिर्फ चितपावन ब्राह्मण होते आए हैं. क्या आप जानते हैं ये चितपावन ब्राह्मण कौन होते हैं ?
चितपावन ब्राह्मण भारत के पश्चिमी किनारे स्थित कोंकण के निवासी हैं. 18वीं शताब्दी तक चितपावन ब्राह्मणों को देशस्थ ब्राह्मणों द्वारा निम्न स्तर का समझा जाता था. यहां तक कि देशस्थ ब्राह्मण नासिक और गोदावरी स्थित घाटों को भी पेशवा समेत समस्त चितपावन ब्राह्मणों को उपयोग नहीं करने देते थे. 
दरअसल कोंकण वह इलाका है जिसे मध्यकाल में विदशों से आने वाले तमाम समूहों ने अपना निवास बनाया जिनमें पारसी, बेने इज़राइली, कुडालदेशकर गौड़ ब्राह्मण, कोंकणी सारस्वत ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण, जो सबसे अंत में भारत आए, प्रमुख हैं. आज भी भारत की महानगरी मुंबई के कोलाबा में रहने वाले बेन इज़राइली लोगों की लोककथाओं में इस बात का जिक्र आता है कि चितपावन ब्राह्मण उन्हीं 14 इज़राइली यहूदियों के खानदान से हैं जो किसी समय कोंकण के तट पर आए थे। 

चितपावन ब्राह्मणों के बारे में 1707 से पहले बहुत कम जानकारी मिलती है. इसी समय के आसपास चितपावन ब्राह्मणों में से एक बालाजी विश्वनाथ भट्ट रत्नागिरी से चलकर पुणे सतारा क्षेत्र में पहुँचा. उसने किसी तरह छत्रपति शाहूजी का दिल जीत लिया और शाहूजी ने प्रसन्न होकर बालाजी विश्वनाथ भट्ट को अपना पेशवा यानी कि प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया. यहीं से चितपावन ब्राह्मणों ने सत्ता पर पकड़ बनानी शुरू कर दी क्योंकि वह समझ गए थे कि सत्ता पर पकड़ बनाए रखना बहुत जरुरी है. मराठा साम्राज्य का अंत होने तक पेशवा का पद इसी चितपावन ब्राह्मण बालाजी विश्वनाथ भट्ट के परिवार के पास रहा। 
एक चितपावन ब्राह्मण के मराठा साम्राज्य का पेशवा बन जाने का असर यह हुआ कि कोंकण से चितपावन ब्राह्मणों ने बड़ी संख्या में पुणे आना शुरू कर दिया जहाँ उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया जाने लगा। चितपावन ब्राह्मणों को न सिर्फ मुफ़्त में जमीनें आबंटित की गईं बल्कि उन्हें तमाम करों से भी मुक्ति प्राप्त थी । चितपावन ब्राह्मणों ने अपनी जाति को सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊपर उठाने के इस अभियान में जबरदस्त भ्रष्टाचार किया।  इतिहासकारों के अनुसार 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन का यह प्रमुख कारण था. रिचर्ड मैक्सवेल ने लिखा है कि राजनीतिक अवसर मिलने पर सामाजिक स्तर में ऊपर उठने का यह बेमिसाल उदाहरण है. (Richard Maxwell Eaton. A social history of the Deccan, 1300-1761: eight Indian lives, Volume 1. p. 192)
चितपावन ब्राह्मणों की भाषा भी इस देश के भाषा परिवार से नहीं मिलती थी । 1940 तक ज्यादातर कोंकणी चितपावन ब्राह्मण अपने घरों में चितपावनी कोंकणी बोली बोलते थे जो उस समय तेजी से विलुप्त होती बोलियों में शुमार थी।  आश्चर्यजनक रूप से चितपावन ब्राह्मणों ने इस बोली को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया।  उद्देश्य उनका सिर्फ एक ही था कि खुद को मुख्यधारा में स्थापित कर उच्च स्थान पर काबिज़ हुआ जाए।  खुद को बदलने में चितपावन ब्राह्मण कितने माहिर हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने जब देश में इंग्लिश एजुकेशन की शुरुआत की तो इंग्लिश मीडियम स्कूलों में अपने बच्चों का दाखिला कराने वालों में चितपावन ब्राह्मण सबसे आगे थे.
इस तरह अत्यंत कम जनसंख्या वाले चितपावन ब्राह्मणों ने, जो मूलरूप से इज़राइली यहूदी थे, न सिर्फ इस देश में खुद को स्थापित किया बल्कि आरएसएस नाम का संगठन बना कर वर्तमान में देश के नीति नियंत्रण करने की स्थिति तक खुद को पहुँचाया, जो अपने आप में एक मिसाल है।

कोलाबा में रहने वाले बेन इस्राइली महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों को कोंकण के तट पर आए 14 इस्राइल यहूदियों के खानदानों का वारिस मानते हैं। मलबारी या कोचिन के यहूदी अपना नाता बाइबल में उल्लिखित किंग सोलोमन से जोड़ते हैं। धारणा है कि जूडिया से भारत में उनका आगमन 175 ईसा पूर्व यूनानी सम्राट एंटियोकस चतुर्थ एपीफानेस के काल हुआ जब कोंकण के तट पर उनकी नौका ध्वस्त हो गई। 7 पुरुष और 7 महिलाएं-केवल 14 लोग बच पाए थे इस दुर्घटना में। यही कोंकणस्थ यहूदियों के पूर्वज माने जाते हैं। आजीविका के लिए खेतों में काम करने के अलावा वे तेल का कोल्हू चलाने लगे, स्थानीय बोली को अपनाया और उपनाम भी मराठियों की तरह ही गांव के आधार पर रख लिए, जैसे नवगांवकर, पनवेलकर (ऐसे 142 उपनाम) आदि।
 वे अपने आप को यहूदी न कहकर बेने इस्राइली कहते थे। परंतु स्थानीय लोग उन्हें शनिवारी तेली के नाम से जानते थे क्योंकि वे शनिवार के दिन (शब्बाथ) कोई काम नहीं करते थे। ठाणे के मॉयर मोजेज ने जानकारी दी, ‘समुदाय में शनिवार छुट्टी का दिन-केवल आराम (नौकर-चाकर, पशु-पक्षियों तक) के लिए मुकर्रर है। आम यहूदी परिवार इस दिन बाहर जाने, मेहमान बुलाने, खरीदारी करने तक से परहेज करता है। दिन में तीन नमाजें। यहूदी कैलेंडर का दिन शाम से शुरू होकर सुबह तक चलता है। यहूदी हफ्ते की शुरुआत रविवार से होती है।’
आम तौर पर माना जाता है कि यहूदियों का भारत आगमन कोच्चि के मार्फत 1500 वर्ष पहले हुआ। मुंबई में यहूदियों का आगमन 18वीं सदी में शुरू हुआ। उनकी दो बिल्कुल अलग धाराएं थीं- बेन इस्राइली (इस्राइली के लाल) और बगदादी। बेन इस्राइली 1749 में कोंकण के गांवों से आए थे। बगदादी यहूदी मामलूक वंश के आखिरी शासक दाऊद पाशा द्वारा 19वीं सदी की शुरुआत में मचाई गई तबाही और भीषण नरसंहार के बाद इराक से भागे थे। 

मुंबई में बसने वाला पहला बगदादी यहूदी 1730 में सूरत से आए जोसफ सेमाह को माना जाता है। कोंकण से आए सैमुअल इजेकिल दिवेकर ने मुंबई का प्रथम सिनेगॉग ‘शारे राहामीम’ (गेट ऑफ मर्सी) मई, 1796 में स्थापित किया। मसजिद स्टेशन ने अपना नाम सैमुअल स्ट्रीट के इसी सिनेगॉग से पाया है। जैकब ससून द्वारा 1884 में बना केनेथ इलियाहू भायखला के मागेन डेविड के अलावा दूसरा बगदादी यहूदी सिनेगॉग है। मागेन डेविड इस्राइल के बाहर सबसे बड़े सिनेगॉग में गिना जाता है।
बहुत वक्त तक भारत और इस्राइल के बीच राजनीतिक संबंध न होने से खुद को अलग-थलग महसूस करने वाले इस समुदाय में दोनों देशों में आई ताजा गर्मजोशी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस्राइल यात्रा की योजना से नई आशाएं जगी हैं।

हाल के वर्षों में भारत से इस्राइल जाकर बसे भारतीयों की नई पीढ़ियां बाप-दादों की यादें ताजा करने के लिए लौटने लगी हैं। भारत सरकार ने मुंबई सहित देश के अन्य यहूदी ठिकानों के लिए पैकेज टूर शुरू करने का निर्णय किया है।

–अजय प्रकाश सरोज ,( विभन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखित)

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