महाराजा सुहेलदेव पासी  के पराक्रम की कथा। 

महमूद  गजनवी के उत्तरी भारत को १७ बार लूटने व बर्बाद करने के कुछ समय बाद उसका  भांजा सलार गाजी भारत को दारूल इस्लाम बनाने के उद्देश्य से भारत पर चढ़  आया । वह पंजाब ,सिंध, आज के उत्तर प्रदेश को रोंद्ता हुआ बहराइच तक जा  पंहुचा। रास्ते में उसने लाखों हिन्दुओं का कत्लेआम कराया,लाखों हिंदू  औरतों के बलात्कार हुए, हजारों मन्दिर तोड़ डाले। राह में उसे एक भी  ऐसाहिन्दू वीर नही मिला जो उसका मान मर्दन कर सके। इस्लाम की जेहाद की आंधी  को रोक सके। बहराइच अयोध्या के पास है के राजा सुहेल देव पासी अपनी सेना  के साथ सलार गाजी के हत्याकांड को रोकने के लिए जा पहुंचे । महाराजा व  हिन्दू वीरों ने सलार गाजी व उसकी दानवी सेना को मूली गाजर की तरह काट डाला  । सलार गाजी मारा गया। उसकी भागती सेना के एक एक हत्यारे को काट डाला गया।  हिंदू ह्रदय राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सलार  गाजी को इस्लाम के अनुसार कब्र में दफ़न करा दिया। कुछ समय पश्चात् तुगलक  वंश के आने पर फीरोज तुगलक ने सलारगाजी को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही  घोषित करते हुए उसकी मजार बनवा दी।आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों  के बलातकारी ,मूर्ती भंजन दानव को हिंदू समाज एक देवता की तरह पूजता है।  आज वहा बहराइच में उसकी मजार पर हर साल उर्स लगता हँ और उस हिन्दुओ के  हत्यारे की मजार पर सबसे ज्यादा हिन्दू ही जाते हँ

क्या कहा जाए ऐसे हिन्दुओ को…………?

सलार गाजी हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है। हिंदू वीर शिरोमणि सुहेल देव  पासी सिर्फ़ पासी समाज का हीरो बनकर रह गएँ है। और सलार गाजी हिन्दुओं का  भगवन बनकर हिन्दू समाज का पूजनीय हो गया है।

महाराजा सुहेलदेव के पराक्रम की कथा कुछ इस प्रकार से है –

1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि  से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध  मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे  सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की  मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद  ने अपने कंधो पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के  शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया।  इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में  व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को  भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।

ऐतिहासिक सूत्रों के  अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी  जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी  संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी  के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा  गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई. से 1077 तक स्वीकार किया  गया है। वे जाति के पासी थे, राजभर अथवा जैन, इस पर सभी एकमत नही हैं।  महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर  तक फैला हुआ था। गोंडा बहराइच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य  की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी  पासी राजा राज्य करते थे जिनकी संख्या 21 थी। ये थे -1. रायसायब 2. रायरायब  3. अर्जुन 4. भग्गन 5. गंग 6. मकरन 7. शंकर 8. करन 9. बीरबल 10. जयपाल 11.  श्रीपाल 12. हरपाल 13. हरकरन 14. हरखू 15. नरहर 16. भल्लर 17. जुधारी 18.  नारायण 19. भल्ला 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल  देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए  तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव  भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते  थे। महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक  बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली  पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर  रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्ीन,  अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह  आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर  युद्व प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस  लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर  गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट  गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी  वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा  उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं के शासकों की भी  हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को  अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं  भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं  सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार  सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के  अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात  ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे  सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद,  अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा  हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त  मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम  बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था  जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। आइनये मसूदी के अनुसार – निशान सतरिख से  लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी का मिला जो  राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया  बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े  लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों  इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कडे क़े राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा  भोजपात्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी  नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो  जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला चल  बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के  राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम  अपनी ओर से। इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु  संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों  में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई  को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक  बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण व  भोजपत्र बडी वीरता से लड़ें लेकिन परास्त हुए। इन राजाओं को बंदी बनाकर  सतरिख भेज दिया गया। वहॉ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार  सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइज के राजाओं को इस बात का  पता चला तो उन लोगो ने सैफुद्दीन को धेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी  सहायता हेतु बहराइच की ओर आगें बढे। इसी बीच अनके पिता सालार साहू का निधन  हो गया।

बहराइच के पासी राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में  सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर  प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद  पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा  प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क  ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से  मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था।  सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा  रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल,  हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो  गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला  नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही  रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की  नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती  हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के  अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी  रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू  सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया।  उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी  कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम  यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी  चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन  इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्व मे मारे गए।  भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो  बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा  सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस  युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित  हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था।  लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था।  जुन, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की  कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को  सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण  करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को  छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा  सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति  इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी  पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार समूद के भांजे सालार  मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत  यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय  सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया  जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया।  इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व  हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी  समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो  जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई। 10  जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद  गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी  धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका।  राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष  द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका  प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार  इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी  डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने  विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे  विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर  सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी  पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है।

 – अच्छेलाल सरोज 

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